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    Gandhi : महात्मा गाँधी जी की हत्या के छह प्रयास हुए

    गांधी-हत्या के प्रयास 1934 से ही !
    गांधीजी भारत आये उसके बाद
    उनकी हत्या का पहला प्रयास 25 जून, 1934
    को किया गया। पूना में गांधीजी एक
    सभा को सम्बोधित करने के लिए जा रहे थे,
    तब उनकी मोटर पर बम फेंका गया था।
    गांधीजी पीछे वाली मोटर में थे, इसलिए बच
    गये। हत्या का यह प्रयास हिन्दुत्ववादियों के
    एक गुट ने किया था। बम फेंकने वाले के जूते में
    गांधीजी तथा नेहरू के चित्र पाये गये थे,
    ऐसा पुलिसगरिपोर्ट में दर्ज है। 1934 में
    तो पाकिस्तान नाम की कोई चीज क्षितिज
    पर थी नहीं, 55 करोड रुपयों का सवाल
    ही कहा! से पैदा होता ?
    गांधीजी की हत्या का दूसरा प्रयास 1944
    में पंचगनी में किया गया। जुलाई 1944 में
    गांधीजी बीमारी के बाद आराम करने के लिए
    पंचगनी गये थे। तब पूना से 20 युवकों का एक
    गुट बस लेकर पंचगनी पहुंचा। दिनभर वे गांधी-
    विरोधी नारे लगाते रहे। इस गुट के
    नेता नाथूराम गोडसे को गांधीजी ने बात
    करने के लिए बुलाया। मगर नाथूराम ने
    गांधीजी से मिलने के लिए इन्कार कर दिया।
    शाम को प्रार्थना सभा में नाथूराम हाथ में
    छुरा लेकर गांधीजी की तरफ लपका। पूना के
    सूरती-लॉज के मालिक मणिशंकर पुरोहित
    और भीलारे गुरुजी नाम के युवक ने नाथूराम
    को पकड लिया।
    गांधीजी को भारत-विभाजन रोकना चाहिए
    था, यह मा!ग ये लोग किस मु!ह से करते हैं ?
    गांधीजी को विभाजन रोकने के लिए उपवास
    करना चाहिए था, ऐसी अपेक्षा करने
    का इनको क्या नैतिक-अधिकार है ?
    जिसको आप देश के लिए कलंक समझते हैं,
    जिसका वध करना जरूरी मानते हैं, उसी से
    आप ऐसी अपेक्षाए! भी रखते हैं? आपने
    क्यों नहीं विभाजन को रोकने के लिए कुछ
    किया ? सावरकर,हेडगेवार, गोलवलकर ने
    विभाजन के विरुद्ध क्यों नहीं आमरण उपवास
    किया ? क्यों नहीं इसके लिए उन्होंने हिन्दुओं

    का व्यापक आन्दोलन चलाया ?
    जिसको गालिया! देते हों, उसी से देश बचाने
    की गुहार भी लगाते हो ? और जब
    गांधीजी अकेले पड जाने के कारण देश
    का विभाजन रोक नहीं पाये, तब आप
    उनको राक्षस मानकर उनका वध करने
    की साजिश रचते हो ? इसको मर्दानगी कहेंगे
    या नपुंसकता ?
    गांधीजी की हत्या का तीसरा प्रयास
    भी इसी 1944 सितम्बर में, वर्धा में,
    किया गया था। गांधीजी मुहम्मद
    अली जिन्ना से बातचीत करने के लिए बम्बई
    जाने वाले थे। गांधीजी बम्बई न जा सके,
    इसके लिए पूना से एक गुट वर्धा पहु!चा।
    उसका नेतृत्व नाथूराम कर रहा था। उस गुट के
    ग.ल. थने के नाम के व्यक्ति के पास से
    छुरा बरामद हुआ था। यह बात पुलिस-रिपोर्ट
    में दर्ज है। यह छुरा गांधीजी की मोटर के
    टायर को पंक्चर करने के लिए लाया गया था,
    ऐसा बयान थने ने अपने बचाव में दिया था।
    इस घटना के सम्बन्ध में प्यारेलाल
    (म.गांधी के सचिव) ने लिखा है : 'आज सुबह
    मुझे टेलीफोन पर जिला पुलिस-सुपरिन्टे
    ण्डेण्ट से सूचना मिली कि स्वयंसेवक गम्भीर
    शरारत करना चाहते हैं, इसलिए पुलिस
    को मजबूर होकर आवश्यक कार्रवाई
    करनी पडेगी। बापू ने कहा कि मैं उसके बीच
    अकेला जाऊंगा और वर्धा रेलवे स्टेशन तक
    पैदल चलूगा, स्वयंसेवक स्वयं अपना विचार
    बदल लें और मुझे मोटर में आने को कहें
    तो दूसरी बात है। बापू के रवाना होने से ठीक
    पहले पुलिस-सुपरिन्टेण्डेण्ट आये और बोले
    कि धरना देने वालों को हर तरह से समझाने-
    बुझाने का जब कोई हल न निकला,
    तो पूरी चेतावनी देने के बाद मैंने उन्हें
    गिरफ्तार कर लिया है।
    धरना देनेवालों का नेता बहुत ही उनेजित
    स्वभाववाला, अविवेकी और अस्थिर मन
    का आदमी मालूम होता था, इससे कुछ
    चिंता होती थी। गिरफ्तारी के बाद
    तलाशी में उसके पास एक बडा छुरा निकला।
    (महात्मा गांधी : पूर्णाहुति : प्रथम खण्ड,
    पृष्ठ 114)इस प्रकार
    प्रदर्शनकारी स्वयंसेवकों की यह
    योजना विफल हुई। 1944 के सितम्बर में
    भी पाकिस्तान की बात उतनी दूर थी,
    जितनी जुलाई में थी।
    गांधीजी की हत्या का चौथा प्रयास 29
    जून, 1946 को किया गया था।
    गांधीजी विशेष टेंन से बम्बई से पूना जा रहे
    थे, उस समय नेरल और कर्जत स्टेशनों के बीच
    में रेल पटरी पर बडा पत्थर रखा गया था। उस
    रात को डांइवर की सूझ-बूझ के कारण
    गांधीजी बच गये। दूसरे दिन, 30 जून
    की प्रार्थना-सभा में गांधीजी ने पिछले दिन
    की घटना का उल्लेख करते हुए कहा :
    ''परमेश्वर की कृपा से मैं सात बार
    अक्षरशः मृत्यु के मु!ह से सकुशल वापस
    आया हू!। मैंने कभी किसी को दुख नहीं पहु!
    चाया। मेरी किसी के साथ दुश्मनी नहीं है,
    फिर भी मेरे प्राण लेने का प्रयास इतनी बार
    क्यों किया गया, यह बात मेरी समझ में
    नहीं आती। मेरी जान लेने का कल का प्रयास
    निष्फल गया।'
    नाथूराम गोडसे उस समय पूना से 'अग्रणील्
    नाम की मराठी पत्रिका निकालता था।
    गांधीजी की 125 वर्ष जीने की इच्छा जाहिर
    होने के बाद 'अग्रणी' के एक अंक में नाथूराम ने
    लिखा- 'पर जीने कौन देगा ? 'यानी कि 125
    वर्ष आपको जीने ही कौन देगा ?
    गांधीजी की हत्या से डेढ वर्ष पहले नाथूराम
    का लिखा यह वाक्य है। यह कथन साबित
    करता है कि वे गांधीजी की हत्या के लिए
    बहुत पहले से प्रयासरत थे। 'अग्रणी'का यह
    अंक शोधकर्ताओं के लिए उपलब्ध है। 1946 के
    जून में पाकिस्तान बन जाने
    की शक्यता तो दिखायी देने लगी थी, परन्तु
    55 करोड रुपयों का तो उस समय कोई प्रश्न
    ही नहीं था। इसके बाद 20 जनवरी,1948
    को मदनलाल पाहवा ने गांधीजी पर,
    प्रार्थना सभा में, बम फेंका और 30 जनवरी,
    1948 के दिन नाथूराम गोडसे ने
    गांधीजी की हत्या कर दी।

    -अनाम विद्रोही.


    Google पर देखे   :महात्मा गाँधी जी की हत्या

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