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    कांग्रेस का नकारात्मक पक्ष

    दिग्भ्रमित लोग हमेशा कांग्रेस का नकारात्मक पक्ष लोगों के सामने रखकर लोगों को गुमराह करते रहते हैं जबकि असल में कांग्रेस का सकारात्मक पक्ष इतना मजबूत हैं कि उसे सिर्फ गुमराह व्यक्ति ही नजरअंदाज कर सकता हैं

    Amarendra Sharma

    पढ़े गौर से
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    कांग्रेस की उपलब्धियां जिनको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता

    1947 में आजादी के बाद नवगठित देश भारत के समक्ष जो चुनौतियां थीं उसे स्वीकार करते हुए पंडित जवाहर
    लाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी और इसके शीर्ष नेताओं ने देश को दिशा देनी शुरू की।

    कांग्रेस नेतृत्व ने सबसे पहला काम किया कि देश के एकीकरण का जिसके बिना राष्ट्रवाद और जनतांत्रिक संस्थाओं के प्रति जनता समर्पित ही नहीं हो सकती थी।

    इस मंजिल को हासिल करने के बाद कांग्रेस नेतृत्व ने देश को सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषाई आधार पर एक किया तथा देश की जनता को एकता, अखंडता और धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाकर उसे संसद और देश के कानून के प्रति भी जिम्मेदार बना दिया।

    यह सब भारत की जनता के समक्ष एक मूल्य बन गए। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ये बातें बहुत साधारण लगती है, लेकिन जिन विकट परिस्थितियों से गुजर कर देश इस राह पर चल सका वह इतनी आसान नहीं थी
    इसके लिए जिस दूरदर्शिता और राजनीतिक कुशलता की जरूरत थी उसे पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी और उसे वरिष्ठ नेताओं ने कर दिखाया।

    इसके बाद का कदम था देश के सामाजिक और आर्थिक विकास के साथ विश्व पटल पर भारत को एक मजबूत और गुटनिरपेक्ष राष्ट्र के तौर पर स्थापित करने की।

    इन दोनों को हासिल करने के लिए भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कई नीतिगत कदम उठाए। उनके द्वारा उठाए गए इन कदमों का ही नतीजा था कि भारत सामाजिक और आर्थिक जड़ता की स्थिति से निकलकर गतिषील हुआ। धीरे-धीरे तरक्की की राह की वह बुनियाद बननी शुरू हुई जिस पर भारत आज खड़ा है।

    पंडित जवाहर लाल नेहरू की इन्हीं नीतियों की वजह से उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता भी कहा जाता है।
    स्वतंत्र भारत के इतिहास में पंडित नेहरू का प्रधानमंत्री के तौर पर सबसे लम्बा कार्यकाल रहा है और इसीसे जनता के बीच उनकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है।
    पंडित नेहरू के नेतृत्व में ही देश के विकास की आधारशीला रखी गई और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की एक स्वतंत्र पहचान बनी।

    अतः कांग्रेस नेतृत्व में भारत के विकास की जो पटकथा लिखी गई उसे नेहरू युग की प्रासंगिकता को समझे बिना ठीक तरह से समझा नहीं जा सकता।
    आजादी के बाद राज्यों और क्षेत्रों के बीच आर्थिक असमानता एक गंभीर समस्या थी। हम औपनिवेशिक तौर पर विकसित हो गए थे, लेकिन अन्य क्षेत्र बहुत अधिक पिछड़ गए थे।

    उस समय के मुंबई और पश्चिम बंगाल देश के दो सबसे बड़े आर्थिक केन्द्र थे तथा देश की कुल औद्योगिक पूंजी का लगभग 60 फीसदी यहीं केन्द्रित थी।

    देश के कुल औद्योगिक उत्पादन का लगभग दो तिहाई उत्पादन के केन्द्र भी यही थे।
    इसी तरह कृषि के क्षेत्र में भी असमानता थी तथा उत्तर और दक्षिणी भारत के मुकाबले पूर्वी भारत बहुत पिछड़ा हुआ था।

    पंडित नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार शुरू से ही आर्थिक विषमताओं की गंभीरता को पूरी तरह से समझती थी और केन्द्र सरकार को इस उत्तरदायित्व का अहसास था कि देश की तरक्की तभी हो सकती है जब देश के सभी भागों का समान और संतुलित विकास हो।

    भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के पूरे कार्यकाल को लोकतंत्र की परिपक्वता और सामाजिक तथा आर्थिक उपलब्धियों के वर्ष के रूप में देखा जा सकता है।

    पंडित नेहरू के नेतृत्व में केन्द्रीय कांग्रेस सरकार ने गरीब राज्यों और क्षेत्रों में विकास दर को बढ़ाने वाली नीतियों को बड़े पैमाने पर स्वीकृत किया ताकि समृद्ध राज्यों से उनकी आर्थिक दूरी कम हो जाए। इसी उद्देश्य से कांग्रेस सरकार ने वित्तीय आयोग की स्थापना की, जिसकी भूमिका केन्द्रीय कर तथा अन्य वित्तीय संसाधनों का बंटवारा इस तरह से करने में रही कि अन्तर्राज्यीय असमानता कम हो तथा गरीब राज्यों को मदद मिले।
    इसी तरह से कांग्रेस सरकार ने पंडित नेहरू के नेतृत्व में नियोजन को क्षेत्रीय असमानता दूर करने का एक शक्तिशाली औजार बनाया।

    पंडित नेहरू की दृष्टि में नियोजन सिर्फ तीव्र आर्थिक और राष्ट्रीय विकास के लिए ही नहीं, बल्कि पिछड़े इलाकों के औद्योगिक और कृषि विकास की दरों को विशेष उपायों के सहारे बढ़ाने का जरिया था।
    इसी ने पंचवर्षीय योजनाओं की शुरूआत की जिसका उद्देश्य नियोजन था।
    नियोजन के उद्देश्यों को दूसरी पंचवर्षीय योजना में साफ तौर से पिछड़े क्षेत्रों के सशक्तिकरण के रूप में देखा गया और पूरवर्ती योजनाओं में बार-बार दुहराया गया।

    तीसरी योजना में साफ तौर से यह स्वीकार किया गया कि देश के सभी क्षेत्रों का संतुलित विकास, कम विकसित क्षेत्रों के आर्थिक प्रगति का लाभ पहुंचाने और उद्योगों का व्यापक विस्तार नियोजित विकास के प्रमुखता उद्देश्यों में से है।

    तत्कालीन कांग्रेस सरकार की इन नीतियों से यह साफ पता चलता है कि कांग्रेस नेतृत्व विकास की इस अवधारणा पर अमल कर रही थी जिसे आजकल समेकित विकास कहा जाता है और यह एक आधुनिक अवधारणा है।

    कांग्रेस सरकार ने इन आदर्शों को पूरा करने के लिए योजना आयोग का गठन किया। अपनी स्थापना के समय से ही योजना सहायता राशी और उसी अनुपात में समृद्ध राज्यों को कम सहायता राशी देने की नीति अपनाती रही है।
    क्षेत्रीय असमानता को दूर करने का एक महत्वपूर्ण तरीका कांगेस नीत केन्द्र सरकार द्वारा इस्पात, उर्वरक, तेल शोधन, पेट्रोरसायन, मषीन निर्माण, भारी रासायन आदि उद्योगों में सार्वजनिक निवेश की नीति भी रही है। इसके अलावे बिजली, सिंचाई परियोजना, सड़क, रेलवे, डाक एवं संचार जैसे ढांचागत और बुनियादी संरचनाओं का विकास भी कांग्रेस सरकार की महत्वपूर्ण पहल रही है।
    1957 में दूसरी योजना के आरंभ से ही भारत सार्वजनिक निवेशों पर काफी निर्भर रहा है और इन निवेशों के संदर्भ में पिछड़े राज्यों को अधिक लाभ पहुंचाने की लगातार कोशिस की गई।
    सार्वजनिक क्षेत्र की परियोजनाओं के आवंटन से गरीब राज्यों, खासकर बिहार और मध्य प्रदेश जैसे पिछड़े राज्यों को बहुत लाभ हुआ।

    इसी तरह सड़क निर्माण की योजनाओं से दुर्गम पहाड़ों में बसे जम्मू काश्मीर, हिमाचल प्रदेश, असम तथा पूर्वोत्तर के राज्यों को बहुत लाभ हुआ।

    कांग्रेस नेतृत्व ने निजी क्षेत्र के निवेश को भी पिछड़े क्षेत्रों में प्रोत्साहित करने की नीति पर जोर दिया। सरकार ने निजी क्षेत्र को करों में छूट, रियायती दर पर बैंक एवं संस्थागत ऋण आदि मुहैया करवा के निजी निवेशों को बढ़ावा दिया।

    1956 से 1991 तक कांग्रेस की सरकार ने लागू निजी औद्योगिक उपक्रमों के लिए लाइसेंस प्रणाली का उपयोग भी पिछड़े इलाकों में उद्योग स्थापित करने के निर्देश जारी करने के लिए किया।

    1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद उनकी शाखाओं के विस्तार का उपयोग भी पिछड़े क्षेत्रों के पक्ष में किया गया। कांगेस नेतृत्व ने बैंक एवं अन्य सार्वजनिक क्षेत्र की वित्तीय संस्थाओं को इन क्षेत्रों में पूंजी निवेश को प्रोत्साहित करने के निर्देश दिए।

    कांग्रेस सरकार के विभिन्न मंत्रालयों ने भी पिछड़े इलाकों के विकास तथा रोजगार सृजन के लिए विभिन्न योजनाएं बनाई। खासतौर से गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम, जैसे काम के बदले अनाज कार्यक्रम और गहन ग्रामीण विकास कार्यक्रम।

    कांग्रेस सरकार ने बहुत हद तक शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवार नियोजन कार्यक्रम एवं जन वितरण प्रणाली जैसी योजनाओं से भी गरीब राज्यों को लाभ पहुंचाया।
    नेहरूजी इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि ग्रामीण और कृषि क्षेत्र के विकास के बिना देश को तरक्की की राह पर ले जाना नामुमकिन है।

    इसलिए 1960 के दशक में नए तरह के बीज और खाद तकनीक पर आधारित हरित क्रांति की शुरूआत की गई तथा ग्रामीण आधारभूत ढांचा एवं तकनीकी खोजों पर केन्द्र सरकार ने बहुत खर्च किया। इन प्रयासों के सकारात्मक नतीजे सामने आए। इन नीतियों की शुरूआत पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश में की गई और इसके शानदार नतीजों को देखते हुए 1970 के दशक के दौरान आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, पूर्व उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान में और 1980 के दशक में बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिसा और असम तथा इसकी पहुंच ने क्षेत्रीय विषमता को दूर करने में बहुत मदद की।

    नेहरू युग की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि शिक्षा के क्षेत्र में रही।
    नेहरूजी यह मानते थे कि भारत में तकनीक का विकास अति महत्वपूर्ण है। मार्च, 1958 में कांग्रेस सरकार ने लोकसभा में प्रस्ताव पारित किया जो वैज्ञानिक नीतियों को समर्पित था।
    इस नीति का प्रस्ताव करने के पीछे पंडित नेहरू और कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का यह विश्वास था कि सिर्फ विज्ञान ही आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास का अधार बन सकता है तथा संसाधनों की बर्बादी को रोक सकता है।

    पंडित नेहरू और कांग्रेस नेतृत्व ने 1947 में देश के आजाद होते ही सैनिक सुरक्षा में भी वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकों की भूमिका को समझ लिया था। अब जरूरत थी देश के बहुत जरूरी तकनीकी व्यक्तियों के प्रशिक्षण को संगठित करने की, जिसके लिए कांग्रेस सरकार ने तुरंत कदम उठाए।
    अमरीका के मैसाचुएट्स इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलाजी के तर्ज पर 1952 में आई.आई.टी. की आधारशीला खड़गपुर में रखी गई और इसके बाद चेन्नई, मुंबई, कानपुर और दिल्ली में इसकी अन्य शाखाओं को स्थापित किया गया।

    विज्ञान आधारित गतिविधि और वैज्ञानिक अनुसंधान पर होने वाला खर्च 1948-49 में 1.10 करोड़ से बढ़कर 1965-66 में लगभग 85 करोड़ हो गया। इसका सीधा असर तकनीशीयनों पर पड़ा।
    1950 में भारत में 1,88,000 तकनीशियन थे जो 1965 में बढ़कर 7,32,000 हो गए।
    इंजीनियरिंग एवं तकनीकी काॅलेजों में 1950 में छात्रों की संख्या मात्र तेरह हाजार थी जो 1965 में बढ़कर 78,000 हो गई। इसी तरह कृषि महाविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या 1950 के 2600 से बढ़कर 1965 में लगभग 15000 तक पहुंच गई।

    देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू में अद्भुत दूरदर्शिता थी।

    वे न सिर्फ विज्ञान और तकनीक के महत्व को समझते थे, बल्कि वे यह भी मानते थे कि परमाणु ऊर्जा दुनिया के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में एक क्रांति लाएगा तथा देश की सुरक्षा पर भी प्रभाव डालेगा। इस तरह भारत दुनिया के पहले देशों में से था जिसने परमाणु ऊर्जा के महत्व को समझा।
    1948 के शुरूआती दिनों में ही पंडित नेहरू ने लिखा ‘‘भविष्य उनका होगा जो परमाणु ऊर्जा पैदा कर सकेंगे।’’
    आजादी के महज एक साल बाद ही कांग्रेस सरकार ने भारत के महान् परमाणु वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा की अध्यक्षता में परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना की।
    यह आयोग वैज्ञानिक अनुसंधान विभाग के तहत बनाया गया। जो सीधे पंडित नेहरू के निर्देशन में काम करता था। कांग्रेस सरकार ने 1954 में एक अलग परमाणु विभाग की स्थापना की तथा 1956 में, मुंबई में भारत के पहले परमाणु रिएक्टर की स्थापना हुई।

    दिलचस्प बात यह थी कि भारत का पहला परमाणु रिएक्टर एशीया का भी पहला रिएक्टर था।
    भारत के अत्याधुनिक और अतिविकसित परमाणु कार्यक्रम में अनेक परमाणु ऊर्जा संयंत्र स्थापित करने का काम शामिल था। हालांकि पंडित नेहरू के नेतृत्व में भारत परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण प्रयोग के प्रति समर्पित था। इसी दौर में भारत में 1962 में ‘‘इंडियन नेशनल कमेटी फाॅर स्पेस रिसर्च’’ की स्थापना हुई और थुम्बा में राकेट लाॅचिंग फैसिलिटी की स्थापना हुई।

    पंडित नेहरू के नेतृत्व में तत्कालीन रक्षा मंत्री श्री कृष्ण मेनन ने सैन्य अनुसंधान और विकास के लिए कई कदम उठाए। सैन्य साज समान के महत्वपूर्ण फैसले लिए गए ताकि भारत अपनी सैन्य और रक्षा के साजो समान के लिए दूसरे मुल्कों पर निर्भर न रहे। पंडित जवाहर लाल नेहरू देश की सुरक्षा और उसकी अखंडता तथा संप्रभुता के प्रति पूरी तरह समर्पित थे।

    पंडित नेहरू विज्ञान, तकनीक, परमाणु ऊर्जा और देश की सामरिक ताकत के समर्थक जरूर थे, लेकिन वे एक ऐसे नेता के तौर पर सम्मान पाते थे जो वैश्विक शांति तथा दूसरे देशों के शांतिपूर्ण सहअस्तित्व में विश्वास करते थे।
    पंडित नेहरू ने भारतीय सेना के गठन में भी अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया।
    सैनिक बलों का आकार अपेक्षाकृत छोटा रखा गया और सैन्य बलों पर खर्च भी काफी कम रखा गया, जो उस समय की राष्ट्रीय आय का महज दो प्रतिशत ही था।

    पंडित नेहरू को अपनी सेना की शक्ति पर इतना विश्वास था कि 1954 में अमरीका द्वारा पाकिस्तान को भारी सैन्य सहायता देने के बावजूद उन्होंने भारतीय सेना के विस्तार की अनुमति नहीं दी।
    पंडित नेहरू के इस फैसले से भी उनकी सोच की व्यापकता का पता चलता है। दरअसल वे देश के आर्थिक विकास के लिए दुर्लभ संसाधनों को बचाना चाहते थे और घरेलू सैनिक उद्योग के अभाव में विदेशी शक्तियों पर निर्भरता और इसके परिणाम स्वरूप भारत के आंतरिक और विदेश नीति में उनके दखल से बचना चाहते थे।

    दूसरी तरफ, फ्रांस, जर्मनी समेत तीसरी दुनिया के देशों ने 19वीं सदी में अनियंत्रित सेना को अराजक होते देखा था और पंडित नेहरू तथा कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता चाहते थे कि एक लोकतांत्रिक देश की सेना गैर राजनीतिक हो। सेना नागरिक नियंत्रण को स्वीकार करे और देश की राजनीति में हस्तक्षेप न करे। इसलिए कांग्रेस नेतृत्व ने सेना को व्यापक आधार वाला संगठन बनाया और उसमें समाज के हर तबके को प्रतिनिधित्व दिया। पंडित नेहरू और कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में भारतीय गणतंत्र के संस्थापकों की दृष्टि सिर्फ राजनीतिक और आर्थिक मामलों तक ही सीमित नहीं थी। वे सामाजिक बदलावों को लेकर भी उतने ही कृत्संकल्प थे। वे समाज के समाजवादी स्वरूप में विश्वास करते थे और ऐसा मानते थे कि जब तक आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन का लाभ समाज के हर तबके तक नहीं पहुंचेगा तब तक देश के समेकित विकास का सपना पूरा नहीं हो सकता।
    भारतीय गणतंत्र के संस्थापकों के इस विचार को ‘‘समाज के समाजवादी प्रारूप’’ के तौर पर व्यक्त किया गया और अधिकारिक रूप से कांग्रेस पार्टी के अवाडी अधिवेशन में इसे स्वीकार किया गया।

    पंडित नेहरू और कांग्रेस पार्टी के इन आदर्शों को दूसरी और तीसरी पंचवर्षीय योजनाओं का अंग बना दिया गया।

    परिणाम स्वरूप सामाजिक सुधारों के कई महत्वपूर्ण कदम पंडित नेहरू के काल में उठाए गए, जिससे राज्य के लोक कल्याणकारी स्वरूप की शुरूआत हुई। लोक कल्याणकारी राज्य के इन्हीं आदर्शों को कांग्रेस सरकार ने दूसरी और तीसरी पंचवर्षीय में भी शामिल किया।

    इस संदर्भ में उठाए गए कुछ महत्वपूर्ण कदम भूमि सुधार, नियोजित आर्थिक विकास की शुरूआत और सार्वजनिक क्षेत्र के तीव्र विस्तार आदि के रूप में देखे जा सकते हैं। इसके अलावा श्रमिकों को समाजवादी अधिकार देने के लिए श्रमिक कानून बनाए गए। श्रमिकों को ट्रेड यूनियन बनाने और हड़ताल करने का अधिकार, रोजगार की सुरक्षा तथा स्वाथ्य एवं दुर्घटना बीमा का प्रावधान आदि की सुरक्षा दी गई। राज्य की संपत्ति के अधिक समतापूर्वक वितरण की दिशा में प्रयास किए गए।
    इस उद्देश्य से आयकर की ऊंची दर और आबकारी कर की नीति लागू की गई। शिक्षा,स्वास्थ्य और अन्य सामाजिक सुविधाओं का विस्तार किया गया।

    पंडित जवाहर लाल नेहरू तथा कांग्रेस के अन्य शीर्ष नेता ऐसा सामाजिक परिवर्तन चाहते थे जो सदियों से चली आ रही सामाजिक जड़ता को समाप्त कर सके तथा पिछड़े और कुचले तबकों की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सके। इसके लिए छुआछूत के उन्मूलन के लिए एक प्रावधान संविधान में पहले ही शामिल कर लिया गया। इस पर और भी सख्ती से अमल किए जाने के मकसद से कांग्रेस सरकार ने 1955 में अछूत के रिवाज को दंडनीय और संक्षेय अपराध बना दिया।

    कांग्रेस सरकार ने संविधान के द्वारा शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा समाज के अन्य पिछड़े तबकों के हित में आरक्षण के प्रावधान को लागू करने का प्रयास किया।

    समाज के पिछड़े तबके के लोगों की सामाजिक हैसियत के ऊंचा करने के लिए उन्हें छात्रवृत्ति, छात्रावास, कर्ज, आवास, स्वास्थ्य और कानूनी सहायता देने की भी व्यवस्था की गई। एक अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयुक्त की भी नियुक्ति की गई ताकि इन कार्यक्रमों के लागू किए जाने पर पूरी निगरानी रखी जा सके। पंडित जवाहर लाल नेहरू और कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता फ्रांसीसी दारहनीक चार्ल्स फूरिस के विचार से सहमत थे कि किसी भी देश के विकास का अंदाजा वहां की महिलाओं की सामाजिक और राजनीति स्थिति से लगाया जा सकता है। राष्ट्रवादी आंदोलन के दौरान महिला संगठनों ने बेहद सक्रिय भागीदारी निभाई थी। स्वयं पंडित नेहरू इससे बहुत प्रभावित थे और वे महिलाओं के अधिकार के जबर्दस्त हिमायती थे।

    इस दिशा में कदम बढ़ाते हुए कांग्रेस पार्टी ने 1951 में हिन्दु कोड बिल प्रस्तावित किया, लेकिन जनसंघ, हिन्दू साम्प्रदायिक संगठनों तथा समाज के दकियानूसी तबकों ने इस प्रस्ताव का भारी विरोध किया।
    जबकि कांग्रेस पार्टी के दबंग सदस्यों, महिला सांसदों और अन्य महिला कार्यकर्ताओं द्वारा इस प्रस्ताव को भरपूर समर्थन मिला। लेकिन पंडित नेहरू ने लोकतांत्रिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए इस बिल पर तात्कालिक रूप से रोक लगा दी ताकि इसके लिए और भी समर्थन जुटाया जा सके। पंडित नेहरू इस बिल को पारित कराने के लिए कटिबद्ध थे।

    1951-52 में देश के प्रथम आम चुनाव में उन्होंने इसे मुद्दा बनाया। सत्ता में वापस आने के बाद सरकार ने इस विधेयक को चार अलग-अलग कानूनों की शक्ल में पारित किया।
    जिसने एकनिष्ठ विवाह, पुरूष और स्त्री दोनों के लिए तलाक का प्रावधान, विवाह और सहमति की उम्र सीमा बढ़ाने तथा महिलाओं को व्रृत्ति (मेंटेनेंस) पाने तथा पारिवारिक संपत्ति में हिस्सा पाने का अधिकार दिलाया।
    इस प्रकार देश में महिलाओं को अधिकार दिलाने की दिशा में एक क्रान्तिकारी कदम उठाया गया।
    पंडित जवाहर लाल नेहरू एक विख्यात शिक्षाविद् भी थे। उनके कुशल नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी और वरिष्ठ नेताओं ने यह समझ लिया था कि सामाजिक एवं आर्थिक विकास अवसर की समानता और जनवादी समाज के निर्माण के लिए व्यापक और बेहतर शिक्षा बेहद जरूरी है।
    ऐसा इसलिए भी जरूरी था, क्योंकि आजादी के समय भारत में साक्षरता की दर बहुत कम थी। 1951 में भारत की साक्षरता दर महज 16.6 प्रतिशत ही थी।

    ग्रामीण इलाकों की हालत और भी बदतर थी। जहां साक्षरता दर महज 6 फीसदी थी।
    इस हालत को देखते हुए भारतीय गणराज्य के संस्थापकों ने 1961 में संविधान में यह प्रावधान रखा कि 14 वर्ष तक की उम्र के बच्चों की शिक्षा अनिवार्य और मुफ्त हो तथा इसकी जिम्मेदारी सरकार उठाए यद्यपि बाद में इस लक्ष्य को बढ़ाकर 1966 तक कर दिया गया।

    कांग्रेस सरकार ने शिक्षा के विकास के लिए कई कारगर कदम उठाए।
    1951-52 में शिक्षा के ऊपर लगभग 20 करोड़ खर्च हो रहे थे। वह 1964-65 में लगभग सात गुना बढ़कर 146.27 करोड़ हो गया। पंडित नेहरू के दिनों में शिक्षा और खासकर लड़कियों की शिक्षा में बहुत तरक्की हुई।
    1951 से 1961 में 10 वर्षों के दौरान छात्रों की संख्या दो गुनी और छात्राओं की संख्या तीन गुनी बढ़ गई। माध्यमिक स्तर पर इन दस वर्षों के दौरान छात्रों की संख्या 10 लाख से बढ़कर 40 लाख और छात्राओं की संख्या लगभग 2 लाख से बढ़कर 10 लाख हो गई। छात्रों की बढ़ती संख्या को देखते हुए माध्यमिक स्कूलों की संख्या में भी बढ़ोत्तरी की गई। 1951-61 के दशक में माध्यमिक स्कूलों की संख्या 7288 से बढ़कर 24,477 हो गई। इस तरह के बदलाव से उच्च शिक्षण संस्थान भी अछूते नहीं थे। देश की आजादी के समय देश में सिर्फ 18 विश्वविद्यालय थे जिनमें लगभग 3 लाख विद्यार्थी पढ़ते थे। आजादी के बाद के 17 वर्षों में देश में विश्विद्यालयों की संख्या 54 तक पहुंच गई, जबकि उनसे संबद्ध काॅलेजों की संख्या 2500 तक पहुंच गई।

    दिलचस्प बात यह है कि इन काॅलेजों में पढ़ने वाली छात्राओं की संख्या में छः गुना बढ़ोत्तरी हुई और काॅलेज में पढ़ने वाले विद्यार्थियों में देश के नागरिकों को पूर्ण शिक्षित बनाने का लक्ष्य भले ही अभी भी बहुत दूर था, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व और सरकार ने शिक्षा को भारतीय समाज में एक मूल्य के तौर पर स्थापित कर दिया। यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी।

    पंडित जवाहर लाल नेहरू और कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि ग्रामीण विकास के बिना समेकित विकास का सपना पूरा नहीं हो सकता।

    आजादी के समय देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती थी और देश की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि था। ऐसी परिस्थितियों में ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए दो बड़े कार्यक्रम सामुदायिक विकास कार्यक्रम और पंचायती राज, 1952 और 1959 में शुरू किए गए।

    इन कार्यक्रमों का उद्देश्य गांवों में कल्याणकारी राज्य की नींव डालना था। इन कार्यक्रमों का उद्देश्य कृषि के विकास के साथ-साथ ग्रामीण भारत की तस्वीर को बदलना था, ताकि लोगों का जीवन स्तर सुधारा जा सके। 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम की प्रायोगिक शुरूआत के लिए 55 विकास प्रखंडों का चयन किया गया। प्रत्येक प्रखंड में 100 गांव और लगभग 60 से 70 हजार की आबादी थी। 1960 के दशक के मध्य के आते-आते सामुदायिक प्रखंडों का जाल सा बिछ गया। सामुदायिक विकास कार्य में लगभग 6000 प्रखंड विकास पदाधिकारी और छः लाख से भी अधिक ग्राम सेवकों की नियुक्ति की गई, ताकि इस कार्यक्रम को बेहतर ढंग से लागू किया जा सके। इस कार्यक्रम में ग्रामीण जीवन के हर पक्ष को लिया गया था। खेती को बेहतर बनाने से लेकर संचार तक तथा स्वास्थ्य और शिक्षा में सुधार आदि सभी पहलुओं को शामिल किया गया। सामुदायिक कार्यक्रम में लोगों द्वारा आत्मनिर्भरता तथा आत्म-सहायता और उत्तरदायित्व मुख्य रूप से जोर दिया जाना था। वास्तव में यह कार्यक्रम जनता के अपने कल्याण के लिए जनता को एक आंदोलन के रूप में संगठित किया जाने वाला कार्यक्रम था। उस कार्यक्रम को विस्तार कार्यों में अच्छी सफलता प्राप्त हुई। जैसे बेहतर खाद, बीज और कृषि उत्पादन के दिशा निर्देशों के परिणामस्वरूप खेती का विकास तेज हुआ और खाद्य उत्पादन बढ़ा। इसके अलावा सड़क, तालाब, कुंआ, स्कूल तथा प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र आदि का निर्माण और षिक्षा एवं चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार हुआ।

    पंडित नेहरू इस कार्यक्रम से इतनी उम्मीद करते थे कि वे सामुदायिक विकास कार्यक्रम और उसके साथ जुड़ी राष्ट्रीय विस्तार सेवा की चर्चा ‘‘नई सरकार’’ और एक ‘‘महान् क्रांति’’ तथा भारत के पुनरूत्थानषील भावना के प्रतीक के रूप में किया करते थे।

    यद्यपि इस कार्यक्रम में कुछ विसंगतियां इसके शुरूआती दौर में दिखने लगी थी। उसकी समीक्षा के लिए बलवंत मेहता समिति का गठन किया गया, जिसने यह सिफारिष की कि ग्रामीण और जिला स्तरीय विकास के लिए प्रषासन का विकेन्द्रीकरण किया जाए। इस समिति की सिफारिशों पर कांग्रेस सरकार ने तुरंत अमल किया और पूरे देश में ग्राम पंचायत को आधार बनाकर एक जनवादी स्वशासन की व्यवस्था की। यह नई व्यवस्था ‘‘पंचायती राज’’ के नाम से जानी गई और विभिन्न राज्यों में 1959 में लागू की जाने लगी। इसमें प्रत्यक्ष रूप से चुने गए प्रखंड स्तरीय जिला परिषद् के तीन स्तर बनाए गए। सामुदायिक विकास कार्यक्रम को पंचायती राज के साथ जोड़ दिया गया और विकास कार्यक्रमों को सही ढंग से चलाने के लिए कार्य, वित्तीय संसाधन और अधिकार इन तीन स्तरीय समितियों को सौंप दिया गया। इस प्रकार पंचायती राज के द्वारा सामुदायिक विकास कार्यक्रम की एक बहुत बड़ी कमजोरी को जनता की भागीदारी तथा कार्यक्रमों का लागू करने एवं निर्णय लेने का अधिकार सौंप कर दूर करने की कोशिस की गई। इसके तहत अधिकारियों की भूमिका सिर्फ सहायता और निर्देश देने की रह गई।

    इस कार्यक्रम को इस रूप में लागू करने के साथ ही गांवों में सैकड़ों सहकारी संस्थाओं का जाल बुन दिया गया, जिसमें सहकारी बैंक, भूमि गिरबी बैंक, सेवा एवं बाजार सहकारी समिति, आदि संस्थाएं बनाई गई। ये सभी संस्थाएं स्वायत्त शासी थीं, क्योंकि इनका संचालन चुनाव के आधार बनी संस्थाओं द्वारा किया जाता था।

    सही मायने में, पंचायती राज एवं सहकारी संस्थाएं समाज में अन्य क्रांतिकारी परिवर्तन की प्रतिनिधि थीं। इससे विकास और ग्रामीण प्रशासन का उत्तरदायित्व लोगों को प्राप्त हो रहा था, जिससे ग्रामीण विकास की गति तीव्र हो रही थी। अतः वे जनता के हाथों में शक्ति प्रदान करने के उपकरण ही नहीं बल्कि और ज्यादा आत्मनिर्भरता और लोगों के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने वाली एक प्रशिक्षत प्रक्रिया बन रही थी। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि यह मानव संसाधन के विकास की शुरूआती कड़ी बन रही थी।

    कुल मिलाकर पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी के शासनकाल को उम्मीदों और संघर्ष का काल कहा जा सकता है। इस दौर में देश सदियों की अपनी जड़ता से बाहर निकलकर उम्मीदों और ऊर्जा से ओतप्रोत होकर तरक्की की राह पर पड़ चल पड़ा था।

    अपनी दूरदर्षिता, शानदार नेतृत्व और तरक्की की राह पर आगे बढ़ने की नीतियों ने देश को एक मजबूत आधार दिया जिस पर देश लगातार आगे बढ़ रहा है।

    #जय_हिंद
    #जय_कांग्रेस

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