झूठ के पांव नहीं होते
झूठ के पांव नहीं होते
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संघ' इतिहास के साथ शातिर साजिश रचने का महारथी है। सफेद झूठ की बुनियाद पर कोई बात उछाल दो,
जिसमें लोग बाग चकराते रहें,खंडन करते रहें। खंडन तो उतना पहुंचेगा नहीं, जितना उनका बेधड़क दुष्प्रचार तंत्र। इसी तरह का एक साजिशी झूठ मोदी दौर में प्रक्षेपित हुआ कि आजादी के पहले कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए हुए मतदान में प्रदेश कांग्रेस इकाईयों का मत संग्रह हुआ, जिसमें नेहरू को 1 मत, पटेल को 14 मत और गांधी को उनसे दो ज्यादा मत मिला और गांधी ने अपने मत को नेहरू में जोड़कर लोकतंत्र का गला घोंट नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनवाया क्योंकि तय था कि जो कांग्रेस का अध्यक्ष होगा,वही प्रधानमंत्री भी बनेगा। इस तरह ज्यादा लोकप्रिय एवं प्रभावी नेता सरदार पटेल को पक्षपातपूर्ण ढंग से गांधी ने काट कर नेहरू को प्रधानमंत्री के रूप में थोपने का रास्ता बनाया।
सिरे से फर्जी उक्त कहानी सोशल मीडिया में:क्रमश: अध्यक्ष की जगह प्रधानमंत्री के चुनाव की कहानी का भी रूप ले लेती है। जिन्हें इतिहास व राजनीति के ककहरे से वास्ता नहीं, वे भी इसे धड़ल्ले से डंके की चोटपर बहसों में पर कोट करने लगे। मीडिया चैनलों तक की बहसों में इसका प्रयोग होने लगा और अपने ही इतिहास ज्ञान से शून्य बड़े बड़े कांग्रेसी बगलें झांकने या इधर उधर की बातें से करते सुने जाने लगे। ये मानने में मुझे भी संकोच नहीं कि संशय के बावजूद फिर से इतिहास झांकने से पहले मैं भी चकराया ही, यह सोचकर कि कम से कम तह से सफेद झूठ की नींव तो कोई बात नहीं ही उठेगी।
सवाल यह है कि सच क्या है? कांग्रेस संविधान में अध्यक्ष का चुनाव में एआईसीसी एवं पीसीसी सदस्य मतदान से करते हैं और उसका रिजल्ट हजारों की संख्या में आता है। विशेष स्थिति में अंतरिम रूप से कार्यसमिति को अध्यक्ष चुनाव का हक है। उसकी संख्या भी इससे मेल नहीं खाती। प्रदेश समितियों से इस चुनाव का प्राविधान तो कभी भी नहीं रहा।
अध्यक्ष चुनाव की प्रक्रिया के उपर्युक्त सच से भी बड़ा चौंकाने वाला सच यह है कि नेहरू उस समय अध्यक्ष बने ही नहीं थे। सन् 1940 की रामगढ़ कांग्रेस में मौ. आजाद अध्यक्ष चुने गये थे और बीच के अगस्त क्रांति के दौर में हर सक्रिय कांग्रेसी जेल में था और कोई अधिवेशन नहीं होने से वह 1946 तक अध्यक्ष बने रहे। 1946 की 23 नवम्बर को मेरठ में आचार्य कृपलानी तथा 1947 में दिल्ली में राजेन्द्र प्रसाद, 1948 में जयपुर में पट्टाभि सीतारमैया अध्यक्ष चुने गये। आजादी से पूर्व 1929 लाहौर, 1936 लखनऊ व 1937 फैजपुर में कांग्रेस अध्यक्ष रहे जवाहरलाल नेहरू उसके बाद 1951 दिल्ली,1953 हैदराबाद व 1954 कलकत्ता कांग्रेस में जरूर अध्यक्ष चुने गये, जब वह पहले से प्रधानमंत्री भी थे।
ऊपर तो हुई इतिहास में कांग्रेस अध्यक्षों का सच और कांग्रेस में अध्यक्ष चयन विधान की बात, लेकिन जहां तक प्रधानमंत्री चयन का सवाल है, तो पार्टी अध्यक्ष ही प्रधानमंत्री बनेगा, यह वर्तमान या पूर्ववर्ती किस संविधान का हिस्सा है या संसदीय लोकतंत्र की किस परंपरा में ऐसा रहा है ? ऐसा होता तो मोदी नहीं,राजनाथ सिंह को या अटलजी नहीं आडवाणी जी को पीएम बनना चाहिये था। कांग्रेस में क्या संसदीय परंपरा के इतने विमूढ लोग थे कि दलीय विधान के विरुद्ध अध्यक्ष के लिये या संसदीय लोकतंत्र मर्यादा के विरुद्ध प्रधानमंत्री पद के लिए पार्टी की प्रदेश इकाईयों से कोई मतदान करा रहे थे ? कहा जाता है कि झूठ की भी हद होती है,पर शायद संघ के प्रोपेगेंडा तंत्र पर यह लागू नहीं होती।
नेहरू जब 3 बार लगातार अध्यक्ष रहे,तो उन्होंने कांग्रेस के लोगों को लिखा कि यह ठीक नहीं है,इस तरह तो कोई तानाशाह बन जायेगा। आजादी के समय का भी सच यह है कि गांधी से पहले पटेल खुद नेहरू के पक्ष में थे और प्रधानमंत्री पद के लिए न तो कांग्रेस में कोई होड़ थी और न ही लागडाट। नेहरू सहज उम्मीदवार थे, जिन्हें पार्टी ने चुना और बेशक जिन्हें गांधी का भी आशीर्वाद था। वजह साफ थी, वह गांधी के बाद कांग्रेस में राष्ट्रव्यापी
जनाधार वाले सबसे बड़े नेता थे एवं 1936-37 के प्रान्तीय चुनावों से ही देश में सर्वाधिक मांग वाले कांग्रेस के स्टार प्रचारक थे। कभी बम्बई में कांग्रेस की बहुत बड़ी जनसभा में भारी भीड़ की चर्चा पर अमेरिकी पत्रकार Vincent Sheean से सरदार पटेल ने सहजता से कहा कि लोग नेहरू को सुनने आये हैं। देश के हर क्षेत्र एवं हर वर्ग में नेहरू की व्यापक स्वीकार्यता थी और वह अनायास नहीं थी। अपने समकक्षों में किसी से लगभग दो गुना समय,मात्र 13 दिन कम पूरे 10 साल का एक रईस परिवार में मिली समृद्ध जवानी का समय, नेहरू ने ब्रिटिश साम्राज्य की लौह जेलों के भीतर काट दिया था और वह भी हायहाय करके नहीं,गंभीर चिन्तन एवं प्रशस्त लेखकीय सर्जनात्मकता के साथ। वह हर प्रान्त में अवाम के बीच गांधी के बाद सर्वाधिक पहुंचते रहे यायावर राजनीतिज्ञ थे। अहमदनगर जेल में कालजयी रचना 'डिस्कवरी आफ इंडिया' में उन्होंने बताया कि बंगाल के अलावा कोई सूबा नहीं, जिसमें वह अवाम के बीच सुदूर गांव-गिरांव तक नहीं गये हों। बेशक वह दुनिया के सबसे बड़े संवैधानिक लोकतंत्र के संस्थापक प्रधानमंत्री बने, लेकिन राजनीति का सफर शुरू तो किया था अवध में बाबा रामचन्द्र के किसान आन्दोलन में गांवों की धूल फांक कर और इलाहाबाद नगरपालिका का चुनाव जीतकर ही। उन्होंने 'भारत की खोज' में भारत स्वप्न बुना और उसे देश के केनवास पर साकार करने का मौका भी उस इतिहासकार को इतिहास ने दिया।उनकी चुनौतियां और उनसे लोगों की उम्मीदें दोनों ही ज्यादा थीं और उन्होंने उस पर काफी काम किया। काम करने वाले की आलोचना भी होगी और आलोचना के वह कायल भी थे। पर फर्जी एवं मनगढ़ंत बातों से छविध्वंस एवं इतिहास को मरोड़ने की कोशिशें शर्मनाक होती हैं, भले उसमें लगे लोगों को न आये।
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संघ' इतिहास के साथ शातिर साजिश रचने का महारथी है। सफेद झूठ की बुनियाद पर कोई बात उछाल दो,
जिसमें लोग बाग चकराते रहें,खंडन करते रहें। खंडन तो उतना पहुंचेगा नहीं, जितना उनका बेधड़क दुष्प्रचार तंत्र। इसी तरह का एक साजिशी झूठ मोदी दौर में प्रक्षेपित हुआ कि आजादी के पहले कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए हुए मतदान में प्रदेश कांग्रेस इकाईयों का मत संग्रह हुआ, जिसमें नेहरू को 1 मत, पटेल को 14 मत और गांधी को उनसे दो ज्यादा मत मिला और गांधी ने अपने मत को नेहरू में जोड़कर लोकतंत्र का गला घोंट नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनवाया क्योंकि तय था कि जो कांग्रेस का अध्यक्ष होगा,वही प्रधानमंत्री भी बनेगा। इस तरह ज्यादा लोकप्रिय एवं प्रभावी नेता सरदार पटेल को पक्षपातपूर्ण ढंग से गांधी ने काट कर नेहरू को प्रधानमंत्री के रूप में थोपने का रास्ता बनाया।
सिरे से फर्जी उक्त कहानी सोशल मीडिया में:क्रमश: अध्यक्ष की जगह प्रधानमंत्री के चुनाव की कहानी का भी रूप ले लेती है। जिन्हें इतिहास व राजनीति के ककहरे से वास्ता नहीं, वे भी इसे धड़ल्ले से डंके की चोटपर बहसों में पर कोट करने लगे। मीडिया चैनलों तक की बहसों में इसका प्रयोग होने लगा और अपने ही इतिहास ज्ञान से शून्य बड़े बड़े कांग्रेसी बगलें झांकने या इधर उधर की बातें से करते सुने जाने लगे। ये मानने में मुझे भी संकोच नहीं कि संशय के बावजूद फिर से इतिहास झांकने से पहले मैं भी चकराया ही, यह सोचकर कि कम से कम तह से सफेद झूठ की नींव तो कोई बात नहीं ही उठेगी।
सवाल यह है कि सच क्या है? कांग्रेस संविधान में अध्यक्ष का चुनाव में एआईसीसी एवं पीसीसी सदस्य मतदान से करते हैं और उसका रिजल्ट हजारों की संख्या में आता है। विशेष स्थिति में अंतरिम रूप से कार्यसमिति को अध्यक्ष चुनाव का हक है। उसकी संख्या भी इससे मेल नहीं खाती। प्रदेश समितियों से इस चुनाव का प्राविधान तो कभी भी नहीं रहा।
अध्यक्ष चुनाव की प्रक्रिया के उपर्युक्त सच से भी बड़ा चौंकाने वाला सच यह है कि नेहरू उस समय अध्यक्ष बने ही नहीं थे। सन् 1940 की रामगढ़ कांग्रेस में मौ. आजाद अध्यक्ष चुने गये थे और बीच के अगस्त क्रांति के दौर में हर सक्रिय कांग्रेसी जेल में था और कोई अधिवेशन नहीं होने से वह 1946 तक अध्यक्ष बने रहे। 1946 की 23 नवम्बर को मेरठ में आचार्य कृपलानी तथा 1947 में दिल्ली में राजेन्द्र प्रसाद, 1948 में जयपुर में पट्टाभि सीतारमैया अध्यक्ष चुने गये। आजादी से पूर्व 1929 लाहौर, 1936 लखनऊ व 1937 फैजपुर में कांग्रेस अध्यक्ष रहे जवाहरलाल नेहरू उसके बाद 1951 दिल्ली,1953 हैदराबाद व 1954 कलकत्ता कांग्रेस में जरूर अध्यक्ष चुने गये, जब वह पहले से प्रधानमंत्री भी थे।
ऊपर तो हुई इतिहास में कांग्रेस अध्यक्षों का सच और कांग्रेस में अध्यक्ष चयन विधान की बात, लेकिन जहां तक प्रधानमंत्री चयन का सवाल है, तो पार्टी अध्यक्ष ही प्रधानमंत्री बनेगा, यह वर्तमान या पूर्ववर्ती किस संविधान का हिस्सा है या संसदीय लोकतंत्र की किस परंपरा में ऐसा रहा है ? ऐसा होता तो मोदी नहीं,राजनाथ सिंह को या अटलजी नहीं आडवाणी जी को पीएम बनना चाहिये था। कांग्रेस में क्या संसदीय परंपरा के इतने विमूढ लोग थे कि दलीय विधान के विरुद्ध अध्यक्ष के लिये या संसदीय लोकतंत्र मर्यादा के विरुद्ध प्रधानमंत्री पद के लिए पार्टी की प्रदेश इकाईयों से कोई मतदान करा रहे थे ? कहा जाता है कि झूठ की भी हद होती है,पर शायद संघ के प्रोपेगेंडा तंत्र पर यह लागू नहीं होती।
नेहरू जब 3 बार लगातार अध्यक्ष रहे,तो उन्होंने कांग्रेस के लोगों को लिखा कि यह ठीक नहीं है,इस तरह तो कोई तानाशाह बन जायेगा। आजादी के समय का भी सच यह है कि गांधी से पहले पटेल खुद नेहरू के पक्ष में थे और प्रधानमंत्री पद के लिए न तो कांग्रेस में कोई होड़ थी और न ही लागडाट। नेहरू सहज उम्मीदवार थे, जिन्हें पार्टी ने चुना और बेशक जिन्हें गांधी का भी आशीर्वाद था। वजह साफ थी, वह गांधी के बाद कांग्रेस में राष्ट्रव्यापी
जनाधार वाले सबसे बड़े नेता थे एवं 1936-37 के प्रान्तीय चुनावों से ही देश में सर्वाधिक मांग वाले कांग्रेस के स्टार प्रचारक थे। कभी बम्बई में कांग्रेस की बहुत बड़ी जनसभा में भारी भीड़ की चर्चा पर अमेरिकी पत्रकार Vincent Sheean से सरदार पटेल ने सहजता से कहा कि लोग नेहरू को सुनने आये हैं। देश के हर क्षेत्र एवं हर वर्ग में नेहरू की व्यापक स्वीकार्यता थी और वह अनायास नहीं थी। अपने समकक्षों में किसी से लगभग दो गुना समय,मात्र 13 दिन कम पूरे 10 साल का एक रईस परिवार में मिली समृद्ध जवानी का समय, नेहरू ने ब्रिटिश साम्राज्य की लौह जेलों के भीतर काट दिया था और वह भी हायहाय करके नहीं,गंभीर चिन्तन एवं प्रशस्त लेखकीय सर्जनात्मकता के साथ। वह हर प्रान्त में अवाम के बीच गांधी के बाद सर्वाधिक पहुंचते रहे यायावर राजनीतिज्ञ थे। अहमदनगर जेल में कालजयी रचना 'डिस्कवरी आफ इंडिया' में उन्होंने बताया कि बंगाल के अलावा कोई सूबा नहीं, जिसमें वह अवाम के बीच सुदूर गांव-गिरांव तक नहीं गये हों। बेशक वह दुनिया के सबसे बड़े संवैधानिक लोकतंत्र के संस्थापक प्रधानमंत्री बने, लेकिन राजनीति का सफर शुरू तो किया था अवध में बाबा रामचन्द्र के किसान आन्दोलन में गांवों की धूल फांक कर और इलाहाबाद नगरपालिका का चुनाव जीतकर ही। उन्होंने 'भारत की खोज' में भारत स्वप्न बुना और उसे देश के केनवास पर साकार करने का मौका भी उस इतिहासकार को इतिहास ने दिया।उनकी चुनौतियां और उनसे लोगों की उम्मीदें दोनों ही ज्यादा थीं और उन्होंने उस पर काफी काम किया। काम करने वाले की आलोचना भी होगी और आलोचना के वह कायल भी थे। पर फर्जी एवं मनगढ़ंत बातों से छविध्वंस एवं इतिहास को मरोड़ने की कोशिशें शर्मनाक होती हैं, भले उसमें लगे लोगों को न आये।