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    डॉ भगवान दास के कार्यक्षेत्र,लेखन और योगदान

    कार्यक्षेत्र
    23 -24 वर्ष की आयु में ही उन्होंने 'साइंस ऑफ पीस' और 'साइंस ऑफ इमोशन' नामक पुस्तकों की रचना कर
    ली थी। लगभग 8 -10 वर्ष तक उन्होंने सरकारी नौकरी की और पिता की मृत्यु होने पर नौकरी छोड़ दी। इस समय एक ओर देश की स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन हो रहे थे, वहीं दूसरी ओर अंग्रेज़ों के शासन के कारण भारतीय भाषा, सभ्यता और संस्कृति नष्ट भ्रष्ट हो रही थी और उसे बचाने के गंभीर प्रयास किये जा रहे थे। प्रसिद्ध समाज सेविका एनी बेसेंट ऐसे ही प्रयासों के अंतर्गत वाराणसी में कॉलेज की स्थापना करना चाह रही थीं। वह ऐसा कॉलेज स्थापित करना चाहतीं थीं जो अंग्रेज़ी प्रभाव से पूर्णतया मुक्त हो। जैसे ही डॉ. भगवान दास को इसका पता चला उन्होंने तन मन धन से इस महान उद्देश्य पूरा करने का प्रयत्न किया। उन्हीं के सार्थक प्रयासों के फलस्वरूप वाराणसी में 'सैंट्रल हिन्दू कॉलेज' की स्थापना की जा सकी। इसके बाद पं. मदनमोहन मालवीय ने वाराणसी में 'हिन्दू विश्वविद्यालय' स्थापित करने का विचार किया, तब डॉ. भगवान दास ने उनके साथ मिलकर 'काशी हिन्दू विद्यापीठ' की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया और पूर्व में स्थापित 'सैंट्रल हिन्दू कॉलेज' का उसमें विलय कर दिया। डॉ. भगवान दास काशी विद्यापीठ के संस्थापक सदस्य ही नहीं, उसके प्रथम कुलपति भी बने।

    लेखन

    डॉ. भगवान दास ने हिन्दी और संस्कृत भाषा में 30 से भी अधिक पुस्तकों पर लेखन किया। सन् 1953 में भारतीय दर्शन पर उनकी अंतिम पुस्तक प्रकाशित हुई।

    स्वतंत्रता में भाग
    डॉ. भगवान दास ने देश के प्रति अपने कर्त्तव्यों को भी उसी भाव से निभाया। 1921 के 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन' में भाग लेने पर वह गिरफ्तार होकर जेल गये। इसके बाद 'असहयोग आन्दोलन' में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाकर प्रमुख कांग्रेसी नेता के रूप में उभरे। शिक्षा शास्त्री तो वह थे ही, स्वतंत्रता सेनानी के रूप में भी उभर कर सामने आये। असहयोग आन्दोलन के समय डॉ. भगवान दास काशी विश्वविद्यालय के कुलपति थे। उसी समय देश के भावी नेता श्री लालबहादुर शास्त्री भी वहां पर शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। इस समय वह कांग्रेस और गांधी जी से पूर्णत: जुड़ गये थे। 1922 में वाराणसी के म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन के चुनावों में कांग्रेस को भारी विजय दिलायी और म्यूनिसिपल कमेटी के अध्यक्ष चुने गये। इस पद पर रहते हुए उन्होंने अनेक सुधार कार्य कराये। साथ ही वह अध्ययन और अध्यापन कार्य से भी जुड़े रहे, विशेष रूप से हिन्दी भाषा के उत्थान और विकास में उनका योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने महत्त्वपूर्ण कार्य किये। इन महत्त्वपूर्ण कार्यों के कारण उन्हें अनेक विश्वविद्यालयों से डॉक्टरेट की मानद उपाधियों से अलंकृत किया गया। सन् 1935 के कौंसिल के चुनाव में वे कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। कालांतर में वे सक्रिय राजनीति से दूर रहने लगे और भारतीय दर्शन और धर्म अध्ययन और लेखन कार्य में व्यस्त रहने लगे। इन विषयों में उनकी विद्वत्ता, प्रकांडता और ज्ञान से महान भारतीय दार्शनिक श्री सर्वपल्ली राधाकृष्णन भी बहुत प्रभावित थे और डॉ. भगवान दास उनके लिए आदर्श व्यक्तित्व बने।

    योगदान
    डॉ. भगवान दास का योगदान जितना भारतीय शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ और विकसित करने में मानाजाता है, उतना ही योगदान देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण माना जाता है, और जितना योगदान देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण माना जाता है, उतना ही योगदान भारतीय दर्शन और धर्मशास्त्र को विश्वस्तर पर प्रतिष्ठित करने में माना जाता है। 'वसुदैव कुटंबकम' अर्थात 'सारा विश्व एक ही परिवार है' की भावना रखने वाले डॉ. भगवान दास ने सम्पूर्ण विश्व के दर्शन और धर्म को प्राचीन और सामयिक परिस्थितियों के अनुरूप एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया।

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