गिरीश मिश्रा, संपादक लोकमत, 3 /7/2011 पार्ट १
आडवाणी आज अगर भारतीय लोकतंत्र के लिए मौजूदा कश्मीर को 'नेहरू की देन' बता रहे हैं, तो तुल्नात्मक यह भी विचार करना चाहिए कि गांधी-नेहरू ने कभी भी सांप्रदायिक और घृणा आधारित सियासत नहीं की. यह
नेहरू की उदार जम्हूरी दृष्टि थी जिसने खुले मन से दुनिया की पंचायत में कश्मीर के सवाल पर विचार में संकोच नहीं किया और उतने ही बड़े दिल से वहां जनमत संग्रह और लोगों की रायशुमारी की बात भी सुनी. और यही रायशुमारी दृष्टि आज दुनिया भर में लोकतंत्र का आधुनिक संदर्भ और आधार है, न कि पाक की सैनिक तानाशाही. आडवाणी की तरह लोग कह सकते हैं कि सियासत में बडे़ दिल और बडे़ मन की बात नहीं चलती और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में तो एकदम नहीं चलती. लेकिन समझा जाना चाहिए कि यही फर्क नेहरू को दूसरों से आग करता है. जब नासिर-टीटो-सुकर्ण के साथ नेहरू तीसरी दुनिया और निर्गुट देशों का नेतृत्व ही नहीं करते बल्कि उनमें नयी आस भी जगाते हैं. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी और सोवियत राष्ट्रपति खुश्चेव जैसी अनेक शख्सियतें शांति प्रयास में नेहरू की कायल होती हैं. संभवतः नेहरू के इसी बडे़ मन ने उन्हें आम हिंदुस्तानियों के दिल में जगह दी थी और इसीलिए नेहरू को इस देश में जितना प्यार मिला उतना किसी और को नहीं. महात्मा गांधी को भी नहीं. गांधी को अपूर्व सम्मान मिला. जो आज भी है. लेकिन जनता का प्यार तो नेहरू के ही खाते और नसीब में था. आडवाणी की तरह ही संघ प्रमुख रहे सुदर्शन जैसे लोगों ने पहले भी नेहरू की आलोचना की है, लेकिन नेहरू हमेशा नेहरू ही रहे.
ऐसा लिखने का आशय ये है कि नेहरू लोकतांत्रिक धारा के साथ ही हिंदुस्तानियत के भी प्रतीक हैं. वो हिमालय, गंगा, सम्राट अशोक, बादशाह अकबर के साथ ही भारत की सांस्कृतिक विरासत, बुद्ध, शंकराचार्य और अमीर खुसरो को एक साथ जीते हैं. दरअसल, यही उनकी पूंजी है और यही द्वंद्व भी. संभव है कि आज विशेषण में हम उन्हें कश्मीर जैसे मुद्दों पर कटघरे में भी खड़ा करेंगे, लेकिन नेहरू कभी समाज को बांटने वाली रथयात्राओं का नेतृत्व नहीं करते, मस्जिद के 'विध्वंस' की परिणति पर द्विअर्थी रूप से उसे सिर्फ 'दुर्भाग्यपूर्ण' नहीं कहते, बल्कि यदि ऐसा हुआ होता तो उनके शर्म की पराकाष्ठा का अंदाजा लगाना भी मुश्किल है.
ऐसा लिखने की वजह ये है कि ऐसा नहीं है कि सोमनाथ और अयोध्या प्रकरण सिर्फ लगभग दो दशक की कहानी है. दरअसल 1947 में आजादी के कुछ समय बाद ही सोमनाथ और अयोध्या के मुद्दे उठे थे. नेहरू नहीं चाहते थे कि उनके गृहमंत्री और हैसियत में लगभग बराबर वल्लभ भाई पटेल और तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार कार्यक्रम से समद्ध हों, लेकिन वे दोनों भी आजादी के उसी आंदोलन में तपे बढे़ थे, जो नेहरू की भी थाती थी. नतीजतन दोनों ही वहां गए लेकिन साफ कहा कि 'हम पुराने जख्मों को कुरेदने नहीं, लुप्त होती सांस्कृतिक विरासत की स्थापना के लिए आए हैं.' जब कि लगभग उसी समय एक काली रात अयोध्या में गुपचुप तरीके से मस्जिद में मूर्ति रख दी गई. और संयोग देखिए! इसके ठीक 40 साल के बाद दोनों ही जगहों पर एक नए रूप में आंदोलन ही नहीं शुरू हुआ, एक कोने से दूसरे कोने तक रथयात्रा की योजना भी बनी. कोई पूछे कि आडवाणी की निजी सुरक्षा अधिकारी अंजू गुप्ता ने आयोध्या विवाद पर लिब्रहान जांच आयोग और रायबरेली की विशेष अदालत के सामने क्या यह बयान नहीं दिया था कि मस्जिद विध्वंस के समय आडवाणी के सामने ही क्या हिंदुत्ववादी नेता आपस में एक दूसरे को बधाइयां नहीं दे रहे थे, क्या वहां मिठाइयां नहीं बंट रहीं थीं- और यदि उनका 'दुर्भाग्यपूर्ण' बयान सही है, तो क्या उन्होंने ढांचा तोड़ते कारसेवकों को और खुशियां मनाते नेताओं को एक बार भी रोकने की कोशिश की थी? नहीं न. तो ये दृष्टि नेहरू की कभी नहीं हो सकती. नेहरू तो उस गांधी के वैचारिक आभामंडल से अभिभूत थे, जो हिंदू-मुसमान में फर्क नहीं जानता था और फख्र से कहता था-
'ईश्वर अल्ला तेरो नाम
सबको सन्मति दे भगवान'
तथा बंटवारे के बाद इसी श्रृंखला में नोआखबी से दिल्ली लौटने के बाद गांधी ने कहा था कि आ वो पदयात्रा करते हुए पाकिस्तान जाएंगे और वहीं रहना चाहेंगे. वहां रहकर पाकिस्तान के मुस्लिम भाइयों को बता देंगे कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान में रहने वाले एक हैं, आपस में भाई हैं, और दोनों को कोई अलग नहीं कर सकता. लेकिन दुर्भाग्य. तभी गांधी को कट्टरपंथ का शिकार होना पड़ा. दिलचस्प पहालू यह भी है कि जब आडवाणी कश्मीर पर धारा 370 पर आपत्ति करते हैं तो उसी क्रम में धारा 371 को क्यों भूल जाते हैं, जो उत्तरपूर्व के संदर्भ में है, यह भी क्या दोहरापन नहीं है?