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    खरी बात

    भारत में जब कोई कट्टर दक्षिण पंथ के विचार से कविता या कहानी लिखेगा तो वह कैसी बनेगी? क्या कवि ऐसे
    लिखेगा, ‘आओ सारे हिंदू भाई, मिलकर देश पर कर लो कब्जा. बाकी फूल रंग बदल लें, चमन में अब तो कमल रहेगा.’यह बात मजाक लग सकती है, लेकिन दक्षिणपंथ तो हिंदुत्व के विचार पर खड़ा है और फिलहाल देश में हिंदू बाकी किसी भी सामाजिक वर्ग से पीछे नहीं है. दक्षिणपंथ के विचार में बार-बार मुसलमान और ईसाई समुदाय का विरोध आ ही जाता है या यों कहें कि आजादी के आंदोलन में जब बापू ने देश को सफेद टोपी पहनाई थी तो काली टोपी आखिर किस भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए आई थी. ऐतिहासिक संदर्भों से साफ है कि वह जिन्ना के मुस्लिम राष्ट्र के बरअक्स एक हिंदू राष्ट्र के लिए थी. जहां हिंदुओं के अलावा बाकी धर्म के लोग असल में दोयम दर्जे के नागरिक होंगे.

    ठीक वैसे ही जैसे पाकिस्तान में इस्लाम के सामने बाकी धर्म मानने वालों की क्या औकात है. तो ऐसे में संविधान, भारतीयता और हिंदू धर्म में आस्था रखने वाला कोई व्यक्ति दक्षिणपंथ का कवि कैसे बनेगा, क्योंकि यहां उसके पास मानवता की बात करते समय ईसाई या मुसलमान की बात करने की छूट नहीं होगी. बल्कि हो सकता है ज्यादातर मौकों पर उसे कमजोर पर हुए जुल्म के साथ खड़ा होना होगा. कभी उसे किसी मस्जिद को गिराने को उचित बताना होगा, तो कभी गणेश जी को दूध पिलाना होगा. उसे इस काल्पनिक भय को प्रचारित करना होगा कि मुसलमान इस देश पर कब्जा कर लेंगे और अगर कहीं ऐसा नहीं हुआ तो मिशनरी तो देश को लूट ही लेंगे. उसके लेखक बनने के लिए दो विकल्प बचेंगे एक जब पाकिस्तान से युद्ध हो रहा हो. लेकिन इस समय वह भी वही लिख रहा होगा जो बाकी विचारधाराएं लिख रही होंगी. यानी उसकी विचारधारा का कुंवारापन यहां काम नहीं आएगा. दूसरी स्थिति यह होगी कि ऐसा दुर्लभ क्षण आए जब अल्पसंख्यक तबका बहुसंख्यक तबके पर अत्याचार करे. लेकिन इसकी कोई सूरत दूर-दूर तक नजर नहीं आती.

    हां, दक्षिणपंथी हिंदुत्व वाले कवि और लेखक बांग्लादेश, पाकिस्तान या दुनिया के किसी अन्य देश में हो सकते हैं. वहां जब वे अपनी बात कहेंगे तो अंतत: वह एक वंचित तबके की बात होगी, एक अल्पसंख्यक तबके की बात होगी, जिसे हमेशा समाज में अपना वजूद बचाने के लिए संघर्ष करना है. जाहिर है ये परिस्थितियां अभी मुल्क में नहीं हैं, इसलिए सरकार को अपने मन का कवि नहीं मिल पा रहा है. और उसे पूरी भारतीय मेधा को दूसरी विचारधाराओं का क्रीतदास बताने को मजबूर होना पड़ रहा है. इस तरह से सरकार और दक्षिणपंथ सिर्फ अपनी भद्द पिटवा रहा है और कुछ नहीं.

    एक बात और. कुछ लोग सोच रहे होंगे कि वेद जैसी प्राचीन रचना, कालिदास जैसे महाकवि, वाल्मीकि और तुलसी जैसे रामभक्त कवियों के होते हुए, जबरन ही दक्षिणपंथ को कविशून्य बताया जा रहा है. तो इस सवाल करने वालों को यह समझ लेना चाहिए कि ये सब मुक्ति के कवि हैं, मानवता के कवि हैं. उनमें से किसी की कलम इस बात के लिए नहीं चली कि कमजोर को मार दो. अगर इस संस्कृति को भारतीय दक्षिणपंथ ने अपने उदय के समय ही समझ लिया होता तो वह महात्मा गांधी के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आंदोलन के साथ होता न कि काली टोपी लगाए दंड-बैठक करता. बेहतर होगा कि साहित्यकारों को गाली देने के बजाय दक्षिणपंथ भारतीय संस्कृति को गलत तरीके से समझने की अपनी ऐतिहासिक और घातक भूल सुधार ले. फिलहाल तो ऐसा नहीं लगता.

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