सम्मान और पुरस्कार सर्वपल्ली राधाकृष्णन
सम्मान और पुरस्कार
अपने दर्शन शास्त्रीय विचारों के प्रकाशन द्वारा सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने पश्चिम का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। इन्हें 1922 में 'ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय' द्वारा 'दि हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ' विषय पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया। इन्होंने लंदन में ब्रिटिश एम्पायर के अंतर्गत आने वाली यूनिवर्सटियों के सम्मेलन में
कलकत्ता यूनिवर्सटी का प्रतिनिधित्व भी किया। 1926 में राधाकृष्णन ने यूरोप और अमेरिका की यात्राएँ भी कीं। इनका सभी स्थानों पर शानदार स्वागत किया गया। इन्हें आक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज, हार्वर्ड, प्रिंसटन और शिकागो विश्वविद्यालयों के द्वारा सम्मानित भी किया गया। डॉक्टर राधाकृष्णन को यूरोप एवं अमेरिका के प्रवास के प्रत्येक क्षणों की स्मृति थी। इंग्लैण्ड के समाचारों पत्रों ने इनके वक्तव्यों की आदर के साथ प्रशंसा की। उनकी टिप्पणियों से प्रकट होता था कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक ऐसी प्रतिभा हैं जो न केवल भारत के दर्शन शास्त्र की व्याख्या कर सकता है बल्कि पश्चिम का दर्शन शास्त्र भी उनकी प्रतिभा के दायरे में आ जाता है। एक शिक्षाविद् के रूप में उनको असीम प्रतिभा का धनी माना गया। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी ने महान दार्शनिक शिक्षाविद और लेखक डॉ. राधाकृष्णन को देश का सर्वोच्च अलंकरण भारत रत्न प्रदान किया।
मानद उपाधियाँ
जब डॉक्टर राधाकृष्णन यूरोप एवं अमेरिका प्रवास से पुनः भारत लौटे तो यहाँ के विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा उन्हें मानद उपाधियाँ प्रदान कर उनकी विद्वत्ता का सम्मान किया गया। 1928 की शीत ऋतु में इनकी प्रथम मुलाक़ात पंडित जवाहर लाल नेहरू से उस समय हुई, जब वह कांग्रेस पार्टी के वार्षिक अधिवेशन में सम्मिलित होने के लिए कोलकाता आए हुए थे। यद्यपि सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय शैक्षिक सेवा के सदस्य होने के कारण किसी भी राजनीतिक संभाषण में हिस्सेदारी नहीं कर सकते थे, तथापि उन्होंने इस वर्जना की कोई परवाह नहीं की और भाषण दिया। 1929 में इन्हें व्याख्यान देने हेतु 'मेनेचेस्टर विश्वविद्यालय' द्वारा आमंत्रित किया गया। इन्होंने मेनचेस्टर एवं लंदन में कई व्याख्यान दिए। इनकी शिक्षा सम्बन्धी उपलब्धियों के दायरे में निम्नवत संस्थानिक सेवा कार्यों को देखा जाता है-
डॉक्टर राधाकृष्णन वाल्टेयर विश्वविद्यालय, आंध्र प्रदेश के 1931 से 1936 तक वाइस चांसलर रहे।
आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के 1936 से 1952 तक प्रोफेसर रहे।
कलकत्ता विश्वविद्यालय के अंतर्गत आने वाले जॉर्ज पंचम कॉलेज के प्रोफेसर के रूप में 1937 से 1941 तक कार्य किया।
1939 से 1948 तक बनारस के हिन्दू विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।
1953 से 1962 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।
1940 में प्रथम भारतीय के रूप में ब्रिटिश अकादमी में चुने गए।
1948 में यूनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन एवं डॉ. ज़ाकिर हुसैन ए.एम.यू. के विद्यार्थियों के साथ
योगदान
शिक्षा के क्षेत्र में डॉ. राधाकृष्णन का अमूल्य योगदान सदैव अविस्मरणीय रहेगा। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वह एक विद्वान, शिक्षक, वक्ता, प्रशासक, राजनयिक, देशभक्त और शिक्षा शास्त्री थे। अपने जीवन में अनेक उच्च पदों पर रहते हुए भी वह शिक्षा के क्षेत्र में अपना योगदान देते रहे। उनका कहना था कि यदि शिक्षा सही प्रकार से दी जाए तो समाज से अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है।
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अपने दर्शन शास्त्रीय विचारों के प्रकाशन द्वारा सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने पश्चिम का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। इन्हें 1922 में 'ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय' द्वारा 'दि हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ' विषय पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया। इन्होंने लंदन में ब्रिटिश एम्पायर के अंतर्गत आने वाली यूनिवर्सटियों के सम्मेलन में
कलकत्ता यूनिवर्सटी का प्रतिनिधित्व भी किया। 1926 में राधाकृष्णन ने यूरोप और अमेरिका की यात्राएँ भी कीं। इनका सभी स्थानों पर शानदार स्वागत किया गया। इन्हें आक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज, हार्वर्ड, प्रिंसटन और शिकागो विश्वविद्यालयों के द्वारा सम्मानित भी किया गया। डॉक्टर राधाकृष्णन को यूरोप एवं अमेरिका के प्रवास के प्रत्येक क्षणों की स्मृति थी। इंग्लैण्ड के समाचारों पत्रों ने इनके वक्तव्यों की आदर के साथ प्रशंसा की। उनकी टिप्पणियों से प्रकट होता था कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक ऐसी प्रतिभा हैं जो न केवल भारत के दर्शन शास्त्र की व्याख्या कर सकता है बल्कि पश्चिम का दर्शन शास्त्र भी उनकी प्रतिभा के दायरे में आ जाता है। एक शिक्षाविद् के रूप में उनको असीम प्रतिभा का धनी माना गया। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी ने महान दार्शनिक शिक्षाविद और लेखक डॉ. राधाकृष्णन को देश का सर्वोच्च अलंकरण भारत रत्न प्रदान किया।
मानद उपाधियाँ
जब डॉक्टर राधाकृष्णन यूरोप एवं अमेरिका प्रवास से पुनः भारत लौटे तो यहाँ के विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा उन्हें मानद उपाधियाँ प्रदान कर उनकी विद्वत्ता का सम्मान किया गया। 1928 की शीत ऋतु में इनकी प्रथम मुलाक़ात पंडित जवाहर लाल नेहरू से उस समय हुई, जब वह कांग्रेस पार्टी के वार्षिक अधिवेशन में सम्मिलित होने के लिए कोलकाता आए हुए थे। यद्यपि सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय शैक्षिक सेवा के सदस्य होने के कारण किसी भी राजनीतिक संभाषण में हिस्सेदारी नहीं कर सकते थे, तथापि उन्होंने इस वर्जना की कोई परवाह नहीं की और भाषण दिया। 1929 में इन्हें व्याख्यान देने हेतु 'मेनेचेस्टर विश्वविद्यालय' द्वारा आमंत्रित किया गया। इन्होंने मेनचेस्टर एवं लंदन में कई व्याख्यान दिए। इनकी शिक्षा सम्बन्धी उपलब्धियों के दायरे में निम्नवत संस्थानिक सेवा कार्यों को देखा जाता है-
डॉक्टर राधाकृष्णन वाल्टेयर विश्वविद्यालय, आंध्र प्रदेश के 1931 से 1936 तक वाइस चांसलर रहे।
आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के 1936 से 1952 तक प्रोफेसर रहे।
कलकत्ता विश्वविद्यालय के अंतर्गत आने वाले जॉर्ज पंचम कॉलेज के प्रोफेसर के रूप में 1937 से 1941 तक कार्य किया।
1939 से 1948 तक बनारस के हिन्दू विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।
1953 से 1962 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।
1940 में प्रथम भारतीय के रूप में ब्रिटिश अकादमी में चुने गए।
1948 में यूनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन एवं डॉ. ज़ाकिर हुसैन ए.एम.यू. के विद्यार्थियों के साथ
योगदान
शिक्षा के क्षेत्र में डॉ. राधाकृष्णन का अमूल्य योगदान सदैव अविस्मरणीय रहेगा। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वह एक विद्वान, शिक्षक, वक्ता, प्रशासक, राजनयिक, देशभक्त और शिक्षा शास्त्री थे। अपने जीवन में अनेक उच्च पदों पर रहते हुए भी वह शिक्षा के क्षेत्र में अपना योगदान देते रहे। उनका कहना था कि यदि शिक्षा सही प्रकार से दी जाए तो समाज से अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है।
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