डॉ. धोंडो केशव कर्वे का आरंभिक जीवन
महर्षि कर्वे का प्रारम्भिक जीवन कैसे कष्टों में बीता इसका शब्दों में वर्णन कठिन है। जब वे मात्र 15 वर्ष के थे,
तभी उनका विवाह भी कर दिया गया था। एक ओर कम उम्र में विवाह और दूसरी ओर शिक्षा प्राप्ति के लिए संघर्ष। इतना सब होने पर भी महर्षि कर्वे में छोटी आयु से ही समाज सुधार के प्रति रुचि दिखायी देने लगी थी। उनके गांव के ही कुछ विद्वान और समाज के प्रति जागरुक कुछ लोगों जैसे राव साहब मांडलिक और सोमन गुरुजी ने उनके मन में समाज सेवा के प्रति भावना और उच्च चारित्रिक गुणों को उत्पन्न करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। उनके वही गुण दिन प्रतिदिन निखरते चले गये। अत्यंत विपन्नता में जीवन व्यतीत करते हुए जब वे किसी अति निर्धन मनुष्य को देखते जो भी उस समय उनके पास होता उसे दे देते थे। सन् 1891 में जब वे देशभक्त और समाज सेवी गोपालकृष्ण गोखले, दादा भाई नौरोजी और महादेव गोविंद रानाडे जैसे महापुरुषों के पद चिह्नों पर चलते हुए समाज सेवा के क्षेत्र में कुछ सार्थक करने की योजना बना रहे थे, उन्हीं दिनों उनकी पत्नी 'राधाबाई' का निधन हो गया। यद्यपि वे अपनी पत्नी के अधिक सम्पर्क में नहीं रहे थे, तथापि यह उनके लिए बड़ा आघात था। सन् 1891 के अंतिम माह में वे राष्ट्रवादी नेताओं द्वारा संचालित पूना के 'फर्ग्युसन कॉलेज' में गणित के प्राध्यापक के पद पर नियुक्त हुए। अपनी मेहनत और प्रतिभा से वह 'डेक्कन शिक्षा समिति' के आजीवन सदस्य बने।
कार्यक्षेत्र
फर्ग्युसन कॉलेज में अध्यापन करते समय उन्होंने समाज सुधार के क्षेत्र में पदार्पण किया। सन् 1893 में उन्होंने अपने मित्र की विधवा बहिन 'गोपूबाई' से विवाह किया। विवाह के बाद गोपूबाई का नया नाम 'आनंदीबाई' पड़ा। उनके इस कार्य के परिणाम स्वरूप पूरे महाराष्ट्र में विशेषकर उनकी जाति बिरादरी में बड़ा रोष और विरोध उत्पन्न हो गया। इसी विरोध ने महर्षि कर्वे को समाज द्वारा उपेक्षित विधवाओं के उद्धार और पुनर्वास के लिए प्रेरित किया। वह इन दिनों महात्मा गाँधी द्वारा चलाई गयी नई शिक्षा नीति और महाराष्ट्र समाज सुधार समिति के कार्यों में भी व्यस्त थे। जब देश के जाने माने समाज सेवियों और विद्वानों को महर्षि कर्वे द्वारा विधवाओं के उद्धार के लिए किए जाने वाले प्रयत्नों का पता चला तो उन्होंने मुक्त कंठ से उनके कार्यों की प्रशंसा की और सभी संभव सहायता देने का आश्वासन भी दिया। अब महर्षि कर्वे सहयोग और समर्थन प्राप्त होते ही उत्साह के साथ आम जनता को अपने विचारों से सहमत करने और इस उद्देश्य के लिए धन एकत्र करने के काम में लग गये। उन्होंने कुछ स्थानों पर अपने तत्वाधान में विधवाओं के पुनर्विवाह भी सम्पन्न कराये। धीरे धीरे महर्षि कर्वे के इस विधवा उद्धार के कार्यों को प्रशंसा, मान्यता और धन जन सभी मिलने लगे। सन् 1896 में उन्होंने पूना के हिंगले नामक स्थान पर दान में मिली एक भूमि पर एक कुटिया में एक विधवा आश्रम और अनाथ बालिका आश्रम की स्थापना कर दी। धीरे धीरे समाज के धनी और दयालु लोग महर्षि कर्वे के कार्यों से प्रभावित होकर तन मन धन तीनों प्रकार से सहयोग देने लगे। सन् 1907 में महर्षि कर्वे ने महिलाओं के लिए 'महिला विद्यालय' की स्थापना की। जब उन्होंने विधवा और अनाथ महिलाओं के इस विद्यालय को सफल होते देखा तो उन्होंने इस काम को आगे बढ़ाते हुए 'महिला विश्वविद्यालय' की योजना पर भी विचार करना प्रारम्भ कर दिया। अंतत: महर्षि कर्वे के अथक प्रयासों और महाराष्ट्र के कुछ दानवीर धनियों द्वारा दान में दी गयी विपुल धनराशि के सहयोग से सन् 1916 में 'महिला विश्वविद्यालय' की नींव रखी गयी। महर्षि कर्वे के मार्ग दर्शन में यह विश्वविद्यालय विध्वाओं को समाज में पुनर्स्थापित करने और आत्मनिर्भर बनाने का अनूठा संस्थान बन गया। जैसे जैसे इस विश्वविद्यालय का विस्तार होता गया, वैसे वैसे इसकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए महर्षि कर्वे के प्रयास भी बढ़ने लगे।
तभी उनका विवाह भी कर दिया गया था। एक ओर कम उम्र में विवाह और दूसरी ओर शिक्षा प्राप्ति के लिए संघर्ष। इतना सब होने पर भी महर्षि कर्वे में छोटी आयु से ही समाज सुधार के प्रति रुचि दिखायी देने लगी थी। उनके गांव के ही कुछ विद्वान और समाज के प्रति जागरुक कुछ लोगों जैसे राव साहब मांडलिक और सोमन गुरुजी ने उनके मन में समाज सेवा के प्रति भावना और उच्च चारित्रिक गुणों को उत्पन्न करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। उनके वही गुण दिन प्रतिदिन निखरते चले गये। अत्यंत विपन्नता में जीवन व्यतीत करते हुए जब वे किसी अति निर्धन मनुष्य को देखते जो भी उस समय उनके पास होता उसे दे देते थे। सन् 1891 में जब वे देशभक्त और समाज सेवी गोपालकृष्ण गोखले, दादा भाई नौरोजी और महादेव गोविंद रानाडे जैसे महापुरुषों के पद चिह्नों पर चलते हुए समाज सेवा के क्षेत्र में कुछ सार्थक करने की योजना बना रहे थे, उन्हीं दिनों उनकी पत्नी 'राधाबाई' का निधन हो गया। यद्यपि वे अपनी पत्नी के अधिक सम्पर्क में नहीं रहे थे, तथापि यह उनके लिए बड़ा आघात था। सन् 1891 के अंतिम माह में वे राष्ट्रवादी नेताओं द्वारा संचालित पूना के 'फर्ग्युसन कॉलेज' में गणित के प्राध्यापक के पद पर नियुक्त हुए। अपनी मेहनत और प्रतिभा से वह 'डेक्कन शिक्षा समिति' के आजीवन सदस्य बने।
कार्यक्षेत्र
फर्ग्युसन कॉलेज में अध्यापन करते समय उन्होंने समाज सुधार के क्षेत्र में पदार्पण किया। सन् 1893 में उन्होंने अपने मित्र की विधवा बहिन 'गोपूबाई' से विवाह किया। विवाह के बाद गोपूबाई का नया नाम 'आनंदीबाई' पड़ा। उनके इस कार्य के परिणाम स्वरूप पूरे महाराष्ट्र में विशेषकर उनकी जाति बिरादरी में बड़ा रोष और विरोध उत्पन्न हो गया। इसी विरोध ने महर्षि कर्वे को समाज द्वारा उपेक्षित विधवाओं के उद्धार और पुनर्वास के लिए प्रेरित किया। वह इन दिनों महात्मा गाँधी द्वारा चलाई गयी नई शिक्षा नीति और महाराष्ट्र समाज सुधार समिति के कार्यों में भी व्यस्त थे। जब देश के जाने माने समाज सेवियों और विद्वानों को महर्षि कर्वे द्वारा विधवाओं के उद्धार के लिए किए जाने वाले प्रयत्नों का पता चला तो उन्होंने मुक्त कंठ से उनके कार्यों की प्रशंसा की और सभी संभव सहायता देने का आश्वासन भी दिया। अब महर्षि कर्वे सहयोग और समर्थन प्राप्त होते ही उत्साह के साथ आम जनता को अपने विचारों से सहमत करने और इस उद्देश्य के लिए धन एकत्र करने के काम में लग गये। उन्होंने कुछ स्थानों पर अपने तत्वाधान में विधवाओं के पुनर्विवाह भी सम्पन्न कराये। धीरे धीरे महर्षि कर्वे के इस विधवा उद्धार के कार्यों को प्रशंसा, मान्यता और धन जन सभी मिलने लगे। सन् 1896 में उन्होंने पूना के हिंगले नामक स्थान पर दान में मिली एक भूमि पर एक कुटिया में एक विधवा आश्रम और अनाथ बालिका आश्रम की स्थापना कर दी। धीरे धीरे समाज के धनी और दयालु लोग महर्षि कर्वे के कार्यों से प्रभावित होकर तन मन धन तीनों प्रकार से सहयोग देने लगे। सन् 1907 में महर्षि कर्वे ने महिलाओं के लिए 'महिला विद्यालय' की स्थापना की। जब उन्होंने विधवा और अनाथ महिलाओं के इस विद्यालय को सफल होते देखा तो उन्होंने इस काम को आगे बढ़ाते हुए 'महिला विश्वविद्यालय' की योजना पर भी विचार करना प्रारम्भ कर दिया। अंतत: महर्षि कर्वे के अथक प्रयासों और महाराष्ट्र के कुछ दानवीर धनियों द्वारा दान में दी गयी विपुल धनराशि के सहयोग से सन् 1916 में 'महिला विश्वविद्यालय' की नींव रखी गयी। महर्षि कर्वे के मार्ग दर्शन में यह विश्वविद्यालय विध्वाओं को समाज में पुनर्स्थापित करने और आत्मनिर्भर बनाने का अनूठा संस्थान बन गया। जैसे जैसे इस विश्वविद्यालय का विस्तार होता गया, वैसे वैसे इसकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए महर्षि कर्वे के प्रयास भी बढ़ने लगे।