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    डॉ. बिधान चंद्र राय का राजनीतिक सफर

    सन 1922 में वह कलकत्ता मेडिकल जनरल के संपादक और बोर्ड के सदस्य बने। उन्ही दिनों वह कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति आशुतोष मुखर्जी के सम्पर्क में आये। आशुतोष जी बड़े दूरदर्शी और पारखी व्यक्ति
    थे। उन्होंने डॉ. राय को सन् 1923 में होने वाले बंगाल विधानसभा चुनाव में लड़ने के लिए प्रेरित किया। डॉ. राय ने इस चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में उस समय के प्रसिद्ध नेता और अपने विपक्षी सुरेंद्रनाथ बैनर्जी को पराजित किया और इस प्रकार देश की सक्रिय राजनीति में पहला क़दम रखा। देशबंधु चितरंजन दास उनके निकटतम सहयोगी बने और लम्बे समय तक उनके साथ बने रहे। सन् 1925 में उन्होंने देश में उच्च शिक्षा, चिकित्सा और स्वास्थ्य की समस्याओं को राजनीतिक मंच पर उठाया। इसी वर्ष उन्होंने हुगली नदी के प्रदूषण के कारणों और रोकथाम के संदर्भ में एक जांच समिति के गठन का प्रस्ताव प्रस्तुत किया। इस प्रकार उन्होंने राजनीति को भी और मानव समाज की समस्याओं को सुलझाने का माध्यम बनाया। अपनी इसी विद्वत्ता और योग्यता के बल पर देश वे उत्कृष्ट राजनेता के रूप में उभरे। सन् 1927 में देशबंधु जी की मृत्यु के पश्चात वे कांग्रेस के समानांतर बनी स्वराज्य पार्टी के उपनेता बन गये। सन् 1927 में उनकी भेंट बर्मा जेल से लौटे सुभाष चन्द्र बोस से हुई। डॉ. राय नेताजी के विचारों से सहमत हुए और उन होंने अपने अगामी भाषण में कहा - भारतवासियों को आपसी मतभेद भुलाकर देश की स्वतंत्रता के लिए दृढ़ता से आगे बढ़ना चाहिए।
    गाँधी जी का सान्निध्य
    बिधान चंद्र राय
    अब तक डॉ. राय अपनी विद्वत्ता और प्रतिभा के कारण गांधीजी और नेहरू जी के भी बहुत निकट आ गये थे। उन्होंने गांधी जी के सहयोग से देशबंधु जी की स्मृति में 'चितरंजन सेवा सदन' के निर्माण की योजना बनायी। गांधी जी ने डॉ. राय को इस ट्रस्ट का सचिव बनाया। सन् 1928 में वे अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सदस्य चुने गये। 1929 में उन्होंने बंगाल में सविनय अवज्ञा आन्दोलन का नेतृत्व किया। सन् 1930 में उन्हें कांग्रेस कार्यकारिणी समिति में नियुक्त किया गया। सन् 1930 में ही उन्हें आन्दोलन के संदर्भ में गिरफ्तार कर अलीपुर जेल भेज दिया गया। जेल में रहते हुए भी डॉ. राय ने जेल के अस्पताल में सराहनीय कार्य किए। सन् 1931 में वे जेल से रिहा कर दिए गये। इसी वर्ष वह कोलकाता के मेयर चुने गये। सन् 1934 में वह बंगाल प्रदेश कांग्रेस समिति के अध्यक्ष चुने गये। इसी वर्ष वह 'फारवर्ड ब्लॉक' के अध्यक्ष बने और खुल कर कांग्रेस और बंगाल के क्रांतिकारी आन्दोलन का समर्थन किया। कुछ समय पश्चात ही उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस कारण इस्तीफा दे दिया, क्योंकि वह इस दायित्व के कारण अपने डॉक्टरी और अध्यापन के कार्यों को उचित समय नहीं दे पा रहे थे। विशेषकर गरीब रोगियों की चिंता ने ही उन्हें इसके लिए अधिक प्रेरित किया। सन् 1940 में वे कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति से भी अलग हो गये। सन् 1942 में वह कलकत्ता विश्विद्यालय के उपकुलपति नियुक्त हुए। दूसरे विश्व युद्ध का दौर चल रहा था। डॉ. राय ने ऐसी विषम परिस्थितियों में भी कोलकाता में शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था को बनाये रखा। विश्वविद्यालय के संगठन और प्रबंधकारिणी सभा के सदस्य, लेखा मंडल के अध्यक्ष तथा उपकुलपति के रूप में उनकी सेवाओं के लिए उन्हें 'डॉक्टर ऑफ़ सांइस' की उपाधि दी गयी। इसी वर्ष गांधी जी ने उन्हें अपना निजी चिकित्सक नियुक्त किया।

    मुख्यमंत्री
    सन 1947 में देश स्वतंत्र हुआ तो डॉ.राय को केन्द्रीय मंत्रिमंडल में सम्मिलित करने पर विचार हुआ, किंतु उन्होंने अपने डॉक्टरी और समाज सेवा कार्यों को प्राथमिकता देते हुए स्पष्ट इंकार कर दिया। तब गांधी जी के कहने पर उन्हें एक कांग्रेसी होने के नाते अपने कर्तव्य के रूप में बंगाल के मुख्यमंत्री पद का दायित्व ग्रहण करना पड़ा। 23 जनवरी 1948 में राज्यपाल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी द्वारा उन्हें मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलायी गयी। डॉ. राय ने अपने जीवन काल में अनेक सार्वजनिक क्षेत्रों में अपनी पूरी क्षमता के साथ कार्य किया। आज भी उनके द्वारा भारत के विभिन्न स्थानों में स्थापित संस्थान इस बात का स्पष्ट प्रमाण हैं कि वे सही मायनों में राष्ट्र निर्माता थे। 'जादवपुर टी.बी.अस्पताल', 'चितरंजन सेवा सदन', आर.जी.खार.मेडिकल कॉलेज', 'कमला नेहरू अस्पताल', 'विक्टोरिया संस्थान' और 'चितरंजन कैंसर अस्पताल' प्रमुख हैं। उन्होंने अपने निवास स्थल को भी अपनी माता के नाम पर अस्पताल चालाने के लिए दान दे दिया। सन् 1957 में उन्हें भारतीय विज्ञान कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया।

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