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    भारत छोड़ो आन्दोलन पार्ट ४


    आन्दोलन का प्रभाव
    'भारत छोड़ो आन्दोलन' भारत को स्वतन्त्र भले न करवा पाया हो, लेकिन इसका दूरगामी परिणाम सुखदायी रहा। इसलिए इसे "भारत की स्वाधीनता के लिए किया जाने वाला अन्तिम महान प्रयास" कहा गया। अगस्त,
     1942 ई. के विद्रोह के बाद प्रश्न सिर्फ़ यह तय करना था कि स्वतंत्रता के बाद सरकार का स्वरूप क्या हो? 1942 ई. के आन्दोलन की विशालता को देखते हुए अंग्रेज़ों को विश्वास हो गया था कि उन्होंने शासन का वैद्य अधिकार खो दिया है। इस आन्दोलन ने विश्व के कई देशों को भारतीय जनमानस के साथ खड़ा कर दिया। चीन के तत्कालीन मार्शल च्यांग काई शेक ने 25 जुलाई, 1942 ई. को संयुक्त राज्य अमेरीका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट को पत्र में लिखा, "अंग्रेज़ों के लिए सबसे श्रेष्ठ नीति यह है कि वे भारत को पूर्ण स्वतन्त्रता दे दें।" रूजवेल्ट ने भी इसका समर्थन किया। सरदार वल्लभ भाई पटेल ने आन्दोलन के बारे लिखा- "भारत में ब्रिटिश राज के इतिहास में ऐसा विप्लव कभी नहीं हुआ, जैसा कि पिछले तीन वर्षों में हुआ, लोगों की प्रतिक्रिया पर हमें गर्व है।"
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    सरकार ने 13 फ़रवरी, 1943 ई. को 'भारत छोड़ो आन्दोलन' के समय हुए विद्रोहों का पूरा दोष महात्मा गाँधी एवं कांग्रेस पर थोप दिया। गाँधी जी ने इन बेबुनियाद दोषों को अस्वीकार करते हुए कहा कि "मेरा वक्तव्य अहिंसा की सीमा में था।" उन्होंने कहा कि- "स्वतन्त्रता संग्राम के प्रत्येक अहिंसक सिपाही को काग़ज़ या कपड़े के एक टुकड़े पर 'करो या मरो' का नारा लिखकर चिपका लेना चाहिए, जिससे यदि सत्याग्रह करते समय उसकी मृत्यु हो जाए तो उसे इस चिह्न के आधार पर दूसरे तत्त्वों से अलग किया जा सके, जिनका अहिंसा में विश्वास नहीं है।" गाँधी जी ने अपने ऊपर लगे आरोपों को सिद्ध कराने के लिए सरकार से निष्पक्ष जांच की मांग की। सरकार के इस ओर ध्यान न देने पर 10 फ़रवरी, 1943 ई. से उन्होंने 21 दिन का उपवास शुरू कर दिया। उपवास के तेरहवें दिन ही गाँधी जी की स्थिति बिल्कुल नाजुक हो गयी। ब्रिटिश भारत की सरकार उन्हें मुक्त न करके उनकी मृत्यु की प्रतीक्षा करने लगी। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि 'आगा ख़ाँ महल' में उनके अन्तिम संस्कार के लिए चन्दन की लकड़ी की व्यवस्था भी कर दी गयी थी। सरकार की इस बर्बर नीति के विरोध में वायसराय की कौंसिल के सदस्य सर मोदी, सर ए.एन. सरकार एवं आणे ने इस्तीफ़ा दे दिया।
    माउंटबेटन की घोषणा
    लॉर्ड वावेल के स्थान पर लॉर्ड माउंटबेटन को फ़रवरी 1947 ई. में भारत का वायसराय नियुक्त कर दिया गया। माउंटबेटन ने हिन्दू और मुस्लिमों में अंतिम दौर की वार्ता का माहौल तैयार किया। जब सुलह के लिए उनका प्रयास भी विफ़ल हो गया तो, उन्होंने ऐलान कर दिया कि ब्रिटिश भारत को स्वतंत्रता दे दी जाएगी, लेकिन उसका विभाजन भी होगा। सत्ता हस्तांतरण के लिए 15 अगस्त का दिन निश्चित किया गया। उस दिन भारत के विभिन्न भागों में लोगों ने जमकर खुशियाँ मनायीं। दिल्ली में जब संविधान सभा के अध्यक्ष ने मोहनदास करमचंद गाँधी को राष्ट्रपिता की उपाधि देते हुए संविधान सभा की बैठक शुरू की तो बहुत देर तक मधुर ध्वनि चारों ओर विद्यमान रही। बाहर जमा भीड़ गाँधीजी के जयकारे लगा रही थी।
    आज़ादी की प्राप्ति
    देश की राजधानी दिल्ली में जो उत्सव 15 अगस्त-1947 को मनाये जा रहे थे, उनमें महात्मा गाँधी शामिल नहीं थे। वे इस समय कलकत्ता में थे। उन्होंने वहाँ पर भी किसी कार्यक्रम में भाग नहीं लिया, क्योंकि उन्होंने इतने दिन तक जिस स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया था, वह एक बहुत बड़ी कीमत पर प्राप्त हुई थी। राष्ट्र का विभाजन उनके लिये किसी बुरे सपने से कम नहीं था। हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे की गर्दन काटने पर आमादा थे। गाँधी जी ने हिन्दू, सिक्ख और मुस्लिमों से कहा कि अतीत को भुलाकर अपनी पीड़ा पर ध्यान देने के बजाय एक-दूसरे के साथ आपसी भाईचारे की मिसाल को अपनायें।

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