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    ब्लड सुगर की तरह एक अदृश्य - सा मीठा ज़हर

    ब्लड सुगर की तरह एक अदृश्य - सा मीठा ज़हर
    धीरे - धीरे समाता जा रहा है हमारे शरीरों में
    वैचारिक संकीर्णता की डायबिटीज के कारण
    और चढ़ता चला जा रहा है चुपचाप दिनो - दिन
    दिलों में पैनी की जा रही चाकुओं की धार पर

    नाटक बदस्तूर जारी है मंच पर
    और परदा गिरे बिना ही दृश्य बदलते चले जा रहे हैं,
    कभी खुशियों के, कभी मातम के,
    नेपथ्य से लगातार प्रक्षेपित की जा रही हैं ज़हर - बुझी चाकुएँ
    अकस्मात ही होने लगते हैं आजकल बेरहम हमले, हत्याएँ,
    धीरे - धीरे घोला जा रहा है ज़हर हमारी प्रार्थनाओं में
    ज़हरीली होती जा रही है धीरे - धीरे
    हमारे चारों तरफ की आबो - हवा भी

    हम नफ़रत फैलाने वालों को पैगम्बर मानने लगे हैं
    हम ज़हर बाँटने वालों को ईश्वर का दूत समझने लगे हैं
    हम ज़हर के समुंदर में डूबने को मोक्ष का साधन मान बैठे हैं
    हम कितने बेरहम समय में जी रहे हैं यह मत पूछो
    आजकल इन्सानी ख़ून का पोंछा लगाने से
    कुछ ज्यादा ही जोर से चमकने लगती है सियासत की चौखट

    आदमी की बुनियादी समझ बस इतनी ही है
    कि ज़हर को ज़हर ही काट सकता है
    और ताकतवर देशों के हुक्मरान तो माहिर हैं
    दुनिया के किसी भी हिस्से में ज़हर की तिज़ारत करने में
    इसी तिज़ारत से घायल इंसानियत आज भटक रही है लहूलुहान
    सीरिया में, यमन में, ईराक में, लीबिया में, नाइजीरियाई रेगिस्तानों में
    और माँगने से पनाह भी नहीं मिलती उसको किसी कोने में

    इतिहास ज़हरीला होता जा रहा है
    धर्म ज़हरीले होते जा रहे हैं
    पुजारी शांति का पाठ नहीं करते
    लोगों के दिमाग ठस्स होते जा रहे हैं
    जब से इन्सान ने एटम बम बनाना सीखा है
    लगभग उसी समय से राष्ट्राध्यक्षों ने
    प्रेम कविताएँ पढ़ना बंद कर दिया है
    वे प्रेम संदेशे भेजते भी हैं तो सिर्फ़ व्यापार बढ़ाने के उद्देश्य से
    वरना भेजते हैं वे केवल लड़ाकू जहाज, बम और बन्दूकें
    यह भी व्यापार बढ़ाने का ही एक दूसरा तरीका है
    क्योंकि कपड़ों, मसालों और मशीनों के बजाय
    इनका व्यापार काफी फलता - फूलता है आजकल

    ज़हर अब शहरों के शातिर दिमाग से रिस - रिसकर
    गाँवों की चौपालों तक आ पहुँचा है
    वह अफ़वाहों के कंधों पर सवार होकर हमारे घरों में भी घुस आया है
    ज़हर हमारी होली, दीवाली, ईद और बकरीद में आ समाया है
    ज़हर हमारे खाने - पीने, बोलने - बतियाने में है
    ज़हर हमारे कपड़ों - लत्तों, रीतियों और रिवाज़ों में है
    ज़हर हमारी आँखों में पैठकर जम गया है
    ज़हर समय के गिरहबान में घुसकर थम गया है
    #c n p ravi

    चलो, इस ज़हर का अब कुछ तो किया जाय
    मिटेगा नहीं यह ज़हर सिर्फ़ तमग़े लौटाने से
    बेअसर नहीं होगा किसी बयान के आ जाने से
    चलो, बुलन्द - सी आवाज़ में अब लोगों को जगाया जाए
    चलो, विचारों का खुला आकाश अब सजाया जाए
    चलो, ज़हर का अंजाम हर इक शख़्स को समझाया जाए
    चलो, ज़हर उतारने का कोई नया ऐन्टीडोट अब बनाया जाए
    चलो, कुछ करें कि ज़हर मिटे और इन्सानियत बच जाए!

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