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    पंडित जवाहर लाल नेहरू के संदर्भ में सरदार वल्लभ भाई पटेल के उद्गार

    भाजपा और आरएसएस के लोग पंडित जवाहर लाल नेहरू जी पर बहुत गलत सलत टिपण्णियां करते है उन्हें नेहरू जी के बारे में पूर्व प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के विचारों को भी पढ़ना चाहिए ।
    "डर ये भी है की आजकल के भाजपा और आरएसएस के समर्थक ये सवाल ना करदे की अटल बिहारी वाजपेयी कौन था "


    पंडित जवाहर लाल नेहरू के देहावसान के पश्चात संसद में अटल बिहारी वाजपेई के उद्बोधन के मुख्य अंश---
    महोदय, एक सपना था जो अधूरा रह गया, एक गीत था जो गूँगा हो गया, एक लौ थी जो अनन्त में विलीन हो गई। सपना था एक ऐसे संसार का जो भय और भूख से रहित होगा, गीत था एक ऐसे महाकाव्य का जिसमें गीता की गूँज और गुलाब की गंध थी। लौ थी एक ऐसे दीपक की जो रात भर जलता रहा, हर अँधेरे से लड़ता रहा और हमें रास्ता दिखाकर, एक प्रभात में निर्वाण को प्राप्त हो गया।

    मृत्यु ध्रुव है, शरीर नश्वर है। कल कंचन की जिस काया को हम चंदन की चिता पर चढ़ा कर आए, उसका नाश निश्चित था। लेकिन क्या यह ज़रूरी था कि मौत इतनी चोरी छिपे आती? जब संगी-साथी सोए पड़े थे, जब पहरेदार बेखबर थे, हमारे जीवन की एक अमूल्य निधि लुट गई। भारत माता आज शोकमग्ना है – उसका सबसे लाड़ला राजकुमार खो गया। मानवता आज खिन्नमना है – उसका पुजारी सो गया। शांति आज अशांत है – उसका रक्षक चला गया। दलितों का सहारा छूट गया। जन जन की आँख का तारा टूट गया। यवनिका पात हो गया। विश्व के रंगमंच का प्रमुख अभिनेता अपना अंतिम अभिनय दिखाकर अन्तर्ध्यान हो गया।
    महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में भगवान राम के सम्बंध में कहा है कि वे असंभवों के समन्वय थे। पंडितजी के जीवन में महाकवि के उसी कथन की एक झलक दिखाई देती है। वह शांति के पुजारी, किन्तु क्रान्ति के अग्रदूत थे; वे अहिंसा के उपासक थे, किन्तु स्वाधीनता और सम्मान की रक्षा के लिए हर हथियार से लड़ने के हिमायती थे।

    वे व्यक्तिगत स्वाधीनता के समर्थक थे किन्तु आर्थिक समानता लाने के लिए प्रतिबद्ध थे। उन्होंने समझौता करने में किसी से भय नहीं खाया, किन्तु किसी से भयभीत होकर समझौता नहीं किया। पाकिस्तान और चीन के प्रति उनकी नीति इसी अद्भुत सम्मिश्रण की प्रतीक थी। उसमें उदारता भी थी, दृढ़ता भी थी। यह दुर्भाग्य है कि इस उदारता को दुर्बलता समझा गया, जबकि कुछ लोगों ने उनकी दृढ़ता को हठवादिता समझा।
    मुझे याद है, चीनी आक्रमण के दिनों में जब हमारे पश्चिमी मित्र इस बात का प्रयत्न कर रहे थे कि हम कश्मीर के प्रश्न पर पाकिस्तान से कोई समझौता कर लें तब एक दिन मैंने उन्हें बड़ा क्रुद्ध पाया। जब उनसे कहा गया कि कश्मीर के प्रश्न पर समझौता नहीं होगा तो हमें दो मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा तो बिगड़ गए और कहने लगे कि अगर आवश्यकता पड़ेगी तो हम दोनों मोर्चों पर लड़ेंगे। किसी दबाव में आकर वे बातचीत करने के खिलाफ थे।
    महोदय, जिस स्वतंत्रता के वे सेनानी और संरक्षक थे, आज वह स्वतंत्रता संकटापन्न है। सम्पूर्ण शक्ति के साथ हमें उसकी रक्षा करनी होगी। जिस राष्ट्रीय एकता और अखंडता के वे उन्नायक थे, आज वह भी विपदग्रस्त है। हर मूल्य चुका कर हमें उसे कायम रखना होगा। जिस भारतीय लोकतंत्र की उन्होंने स्थापना की, उसे सफल बनाया, आज उसके भविष्य के प्रति भी आशंकाएं प्रकट की जा रही हैं। हमें अपनी एकता से, अनुशासन से, आत्म-विश्वास से इस लोकतंत्र को सफल करके दिखाना है। नेता चला गया, अनुयायी रह गए। सूर्य अस्त हो गया, तारों की छाया में हमें अपना मार्ग ढूँढना है। यह एक महान परीक्षा का काल है। यदि हम सब अपने को समर्पित कर सकें एक ऐसे महान उद्देश्य के लिए जिसके अन्तर्गत भारत सशक्त हो, समर्थ और समृद्ध हो और स्वाभिमान के साथ विश्व शांति की चिरस्थापना में अपना योग दे सके तो हम उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करने में सफल होंगे।

    संसद में उनका अभाव कभी नहीं भरेगा। शायद तीन मूर्ति को उन जैसा व्यक्ति कभी भी अपने अस्तित्व से सार्थक नहीं करेगा। वह व्यक्तित्व, वह ज़िंदादिली, विरोधी को भी साथ ले कर चलने की वह भावना, वह सज्जनता, वह महानता शायद निकट भविष्य में देखने को नहीं मिलेगी। मतभेद होते हुए भी उनके महान आदर्शों के प्रति, उनकी प्रामाणिकता के प्रति, उनकी देशभक्ति के प्रति, और उनके अटूट साहस के प्रति हमारे हृदय में आदर के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

    आज भाई श्री Deepak Sharma  
    जी की जोशीली पोस्ट देखि 


    #भाजपा और #आरएसएस के लोग #सरदार_पटेल का हवाला देकर #पंडित_जवाहर_लाल_नेहरू जी पर आरोप लगाते है और #युवाओं को #भ्रमित करते है ।
    आप लोग पंडित जवाहर लाल नेहरू जी के #जन्म_दिवस पर सरदार पटेल जी का लिखा ये खत पढ़िए
    जानिए नेहरू जी और पटेल जी के सम्बन्ध कैसे थे ।
    पंडित जवाहर लाल नेहरू के संदर्भ में सरदार वल्लभ भाई पटेल के उद्गार----
    जवाहरलाल और मैं साथ-साथ कांग्रेस के सदस्य, आजादी के सिपाही, कांग्रेस की कार्यकारणी और अन्य समितियों के सहकर्मी, महात्माजी के--जो हमारे दुर्भाग्य से हमें बड़ी जटिल समस्याओं के साथ जूझने को छोड़ गये हैं--अनुयायी, और इस विशाल देश के शासन-प्रबन्ध के गुरुतर भार के वाहक रहे हैं। इतने विभिन्न प्रकार के कर्मक्षेत्रों के साथ रह कर और एक दूसरे को जान कर हम में परस्पर स्नेह होना स्वाभाविक था। काल की गति के साथ वह स्नेह बढ़ता गया है और आज लोग कल्पना भी नहीं कर सकते कि जब हम अलग होते हैं और अपनी समस्याओं और कठिनाइयों का हल निकालने के लिए उन पर मिल कर विचार नहीं कर सकते, तो यह दूरी हमें कितनी खलती है । परिचय की इस घनिष्ठता, आत्मीयता और भ्रातृतुल्य स्नेह के कारण मेरे लिए यह कठिन हो जाता है कि सर्व-साधारण के लिए उसकी समीक्षा उपस्थित कर सकूँ। पर देश के आदर्श, जनता के नेता, राष्ट्र के प्रधान मन्त्री और सबके लाड़ले जवाहरलाल को, जिनके महान् कृतित्व का भव्य इतिहास सब के सामने खुली पोथी-सा है, मेरे अनुमोदन की कोई आवश्यकता नहीं है। दृढ़ और निष्कपट योद्धा की भाँति उन्होंने विदेशी शासन से अनवरत युद्ध किया। युक्तप्रान्त के किसान-आन्दोलन के संगठन-कर्ता के रूप में पहली ‘दीक्षा’ पाकर वह अहिंसात्मक युद्ध की कला और विज्ञान में पूरे निष्णात हो गये। उनकी भावनाओं की तीव्रता और अन्याय या उत्पीड़न के प्रति उनके विरोध ने शीघ्र ही उन्हें ग़रीबी पर जहाद बोलने को बाध्य कर दिया। दीन के प्रति सहज सहानुभूति के साथ उन्होंने निर्धन किसान की अवस्था सुधारने के आन्दोलन की आग में अपने को झोंक दिया। क्रमशः उनका कार्यक्षेत्र विस्तीर्ण होता गया, और शीघ्र ही वह उस विशाल संगठन के मौन संगठनकर्ता हो गये जिसे अपने स्वाधीनता-युद्ध का साधन बनाने के लिए हम सब समर्पित थे। जवाहरलाल के ज्वलन्त आदर्शवाद, जीवन में कला और सौन्दर्य के प्रति प्रेम, दूसरों की प्रेरणा और स्फूर्ति देने की अद्भुत आकर्षणशक्ति और संसार के प्रमुख व्यक्तियों की सभा में भी विशिष्ट रूप से चमकनेवाले व्यक्तित्व ने, एक राजनीतिक नेता के रूप में, उन्हें क्रमशः उच्च से उच्चतर शिखरों पर पहुंचा दिया है। पत्नी की बीमारी के कारण की गयी विदेश-यात्रा ने भारतीय राष्ट्रवाद-सम्बन्धी उनकी भावनाओं को एक आकाशीय अन्तर्राष्ट्रीय तल पर पहुँचा दिया। यह उनके जीवन और चरित्र के उस अन्तर्राष्ट्रीय झुकाव का आरम्भ था जो अन्तर्राष्ट्रीय अथवा विश्व-समस्याओं के प्रति उनके रवैये में स्पष्ट लक्षित होता है। उस समय से जवाहलाल ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा; भारत में भी और बाहर भी उनका महत्त्व बढ़ता ही गया है। उनकी वैचारिक निष्ठा, उदार प्रवृति, पैनी दृष्टि और भावनाओं की सचाई के प्रति देश और विदेशों की लाख-लाख जनता ने श्रद्धांजलि अर्पित की है। अतएव यह उचित ही था कि स्वातन्त्र्य की उषा से पहले के गहन अन्धकार में वह हमारी मार्गदर्शक ज्योति बनें, और स्वाधीनता मिलते ही जब भारत के आगे संकट पर संकट आ रहा हो तब हमारे विश्वास की धुरी हों और हमारी जनता का नेतृत्व करें । हमारे नये जीवन के पिछले दो कठिन वर्षों में उन्होंने देश के लिए जो अथक परिश्रम किया है, उसे मुझसे अधिक अच्छी तरह कोई नहीं जानता । मैंने इस अवधि में उन्हें अपने पद की चिन्ताओं और अपने गुरुतर उत्तरदायित्व के भार के कारण बड़ी तेजी के साथ बूढ़े होते देखा है। शरणार्थियों की सेवा में उन्होंने कोई कसर नहीं उठा रखी, और उनमें से कोई कदाचित् ही उनके पास से निराश लौटा हो। कामनवेल्थ की मन्त्रणाओं में उन्होंने उल्लेखनीय भाग लिया है, और संसार के मंच पर भी उनका कृतित्व अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहा है। किन्तु इस सब के बावजूद उनके चेहरे पर जवानी की पुरानी रौनक़ क़ायम है; और वह सन्तुलन, मर्यादा-ज्ञान, और धैर्य, मिलनसारी, जो आन्तरिक संयम और बौद्धिक अनुशासन का परिचय देते हैं, अब भी ज्यों के त्यों हैं। निस्सन्देह उनका रोष कभी-कभी फूट पड़ता है; किन्तु उनका अधैर्य, क्योंकि न्याय और कार्य-तत्परता के लिए होता है और अन्याय या धींगा-धींगी को सहन नहीं करता, इसलिए ये विस्फोट प्रेरणा देनेवाले ही होते हैं और मामलों के तेज़ी तथा परिश्रम के साथ सुलझाने में मदद देते हैं। ये मानों सुरक्षित शक्ति हैं, जिनकी कुमक से आलस्य, दीर्घसूत्रता और लगन या तत्परता की कमी पर विजय प्राप्त हो जाती है। आयु में बड़े होने के नाते मुझे कई बार उन्हें उन समस्याओं पर परामर्श देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है जो शासन-प्रबन्ध या संगठन के क्षेत्र में हम दोनों के सामने आती रही हैं। मैंने सदैव उन्हें सलाह लेने को तत्पर और मानने को राज़ी पाया है। कुछ स्वार्थ-प्रेरित लोगों ने हमारे विषय में भ्रान्तियाँ फैलाने का यत्न किया है और कुछ भोले व्यक्ति उनपर विश्वास भी कर लेते हैं, किन्तु वास्तव में हम लोग आजीवन सहकारियों और बन्धुओं की भाँति साथ काम करते रहे हैं। अवसर की माँग के अनुसार हमने परस्पर एक दूसरे के दृष्टिकोण के अनुसार अपने को बदला है, और एक दूसरे के मतामत का सर्वदा सम्मान किया है जैसा कि गहरा विश्वास होने पर ही किया जा सकता है। उनके मनोभाव युवकोचित उत्साह से लेकर प्रौढ़ गम्भीरता तक बराबर बदलते रहते हैं, और उनमें वह मानसिक लचीलापन है जो दूसरे को झेल भी लेता है और निरुत्तर भी कर देता है। क्रीड़ारत बच्चों में और विचार-संलग्न बूढ़ों में जवाहरलाल समान भाव से भागी हो जाते हैं। यह लचीलापन और बहुमुखता ही उनके अजस्त्र यौवन का, उनकी अद्भुत स्फूर्ति और ताज़गी का रहस्य है। उनके महान् और उज्ज्वल व्यक्तित्व के साथ इन थोड़े-से शब्दों में न्याय नहीं किया जा सकता। उनके चरित्र और कृतित्व का बहुमुखी प्रसार अंकन से परे है। उनके विचारों में कभी-कभी वह गहराई होती है जिसका तल न मिले; किन्तु उनके नीचे सर्वदा एक निर्मल पारदर्शी खरापन, और यौवन की तेजस्विता रहती है, और इन गुणों के कारण सर्वसामान्य--जाति धर्म देश की सीमाएँ पार कर--उनसे स्नेह करते हैं। स्वाधीन भारत की इस अमूल्य निधि का हम आज, उनकी हीरक जयन्ती के अवसर पर, अभिनन्दन करते हैं। देश की सेवा में, और आदर्शों की साधना में वह निरन्तर नयी विजय प्राप्त करते रहें।
    *- सरदार वल्लमभ भाई पटेल*
    (14 अक्टूबर, 1949 को लिखा गया लेख)
    Office Of RG
    Digvijaya Singh
    Indian National Congress





    इन्हीं शब्दों के साथ मैं उस महान आत्मा के प्रति अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।
    *-श्री अटल बिहारी वाजपेयी*
    (29 मई, 1964 को संसद में दिया गया भाषण)

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