Gandhi : गांधी टोपी का इतिहास
गांधी कैप या गांधी टोपी का सम्बंध भारत के स्वाधीनता संग्राम के
इतिहास से जुड़ा हुआ है। यह एक सामान्य से किश्ती या नाव के आकार की टोपी है
जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान सुराजी, ( यह शब्द उन सभी सत्याग्रहियों के
लिये प्रयुक्त होता था जो गांधी जी के आदर्शों पर अंग्रेज़ो के विरुद्ध
लामबद्ध थे, अक्सर प्रयुक्त होता है, ) लोग अपने सिर पर धारण करते थे। यह
खादी से बने कपड़े की बनायी जाती है। यह महात्मा गांधी द्वारा एक यूनिफॉर्म
कैप की तरह प्रचलित की गयी है। लेकिन गांधी जी ने यह टोपी बहुत कम पहनी है।
गूगल पर जब गांधी गैलरी या गांधी एलबम में उनकी टोपी पहनी हुयी मुद्रा में
फ़ोटो मैंने खोजा तो कुछ फोटो मिले ज़रूर पर वह बहुत ही शुरुआती दौर के और
यदाकदा अवसरों के थे।
भारत के इतिहास में 1918 से 1921 के बीच चलने वाले असहयोग आंदोलन की बहुत बड़ी भूमिका है। 1914 में
जब गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौटे तो वे भारत के लिये अनजान नहीं थे। दक्षिण अफ्रीका से लौट कर बम्बई बंदरगाह पर गांधी जी उतरते हुए जो फ़ोटो उपलब्ध है उसमें वे एक पगड़ी बांधे दिखते हैं। वापस आकर उन्होंने उस समय के कांग्रेस के बड़े नेता और बम्बई के वकील गोपाल कृष्ण गोखले से मिले। गोखले ने उन्हें पूरा भारत एक साल तक घूमने और भारत को देखने की सलाह दी। गांधी का भारत दर्शन कार्यक्रम शुरू हुआ। इसी के बाद जब उन्होंने असहयोग आंदोलन शुरू किया तो यह टोपी अस्तित्व में आ गयी। यह टोपी सुराजी टोपी कहलाने लगी और अंग्रेज़ो ने एक समय तो इसके पहनने पर प्रतिबंध लगाने की भी बात सोची थी। पर गांधी स्वयं यह टोपी बहुत कम लगाते थे। उनके बहुत ही कम चित्र इस टोपी में उपलब्ध हैं।
भारत मे यह टोपी कैसे और किस प्रकार चर्चित और चलन में आयी इसका भी एक रोचक इतिहास है। 1919 में महात्मा गांधी उत्तर प्रदेश के रामपुर शहर में गये थे। तब रामपुर रियासत के नवाब सैयद हामिद अली खान बहादुर ( 1889 से 1930 ) थे। गांधी जी की उनसे मुलाकात रामपुर की कोठी खास में निर्धारित थी। जब वे नवाब रामपुर से मिलने के लिये निकलने को हुये तो नवाब के जो अधिकारी गांधी जी को मुलाकात की सूचना देने के लिये आये थे, ने उनसे दरबार की एक परंपरा के बारे में गांधी जी को बताया। उक्त परंपरा के अनुसार, नवाब के अतिथि को नवाब के पास उनके दरबार मे जाने के लिये सिर ढंकना ज़रूरी होता है। गांधी जी के पास कोई अन्य पगड़ी या टोपी ही नही थी, जिससे वे अपना सिर ढँक सके। तब रामपुर के बाजार में गांधी जी के पसंद और जो उनके सिर में फिट हो जाय, वैसी टोपी की तलाश हुयी। लेकिन जब यह बात पता चली तो खिलाफत आंदोलन के मशहूर अली ब्रदर्स मुहम्मद अली और शौकत अली की मां आबादी बेगम से खुद एक सादी सी टोपी सिलवाई और तब वह टोपी पहन कर गांधी जी नवाब से मिलने कोठी खास में गये। यह टोपी चूंकि गांधी जी के लिये ही खास तौर पर तैयार की गयी थी, अतः इस टोपी का नाम गांधी टोपी पड़ गया। यह बात हिंदुस्तान टाइम्स को रामपुर रियासत के इतिहासकार नफीस सिद्दीकी ने बतायी है। किश्ती के आकार की यह टोपी कभी आज़ादी के लड़ाकों यानी सुराजियों की प्रिय टोपी बन जाएगी यह आबादी बेगम ने कभी सोचा भी नहीं होगा।
1919 से 1921 के बीच गांधी जी की कुछ तस्वीरें टोपी पहने हुये मिलती हैं। पर 1921 के बाद गांधी जी ने यह टोपी पहनना कम या बिल्कुल ही बंद कर दिया। लेकिन यह टोपी आज भी नेता बनने की एक निशानी बनी हुयी है। आज़ादी के संघर्ष के दौरान सभी नेताओं ने यह टोपी धारण की है। यह टोपी ब्रिटिश हुक़ूमत के विरुद्ध आंदोलन का एक प्रतीक बन चुकी थी। अंग्रेज़ो ने इसे प्रतिबंधित करने पर भी एक बार गम्भीरता से विचार किया था। लेकिन बाद में उन्होंने यह विचार त्याग दिया था। स्वाधीनता संघर्ष के दौरान हांथ से काते गये सूत से बनी यह टोपी देश के आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता की भी प्रतीक थी। ब्रिटेन सोलर हैट या अन्य हैट के समक्ष यह टोपी स्वदेशी जवाब था। कांग्रेस सेवादल की तो यह यूनिफॉर्म ही बन गयी थी।
गांधी टोपी के आकार और स्वरूप को लेकर एक और रोचक विवरण मिलता है। यह तो पता नहीं चला कि रामपुर में बनी टोपी का डिजाइन महात्मा गांधी द्वारा दिया गया था या अली ब्रदर्स की माता जी के दर्जी के दिमाग की उपज थी पर दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी के निकट सहयोगी रहे हेनरी पोलॉक ने यह रहस्योद्घाटन किया कि यह इसी प्रकार की टोपी गांधी पहले दक्षिण अफ्रीका में पहन चुके थे। दक्षिण अफ्रीका के कैदियों को जो जेल में रखे जाते थे तो उन्हें गांधी टोपी जैसी टोपी ही पहननी पड़ती थी। वहां सभी कैदियों को नीग्रो कहा जाता था। निग्गर या नीग्रो एक रंगभेदी और अपमानजनक शब्द है, जो अफ्रीका की काले रंग के निवासियों को गोरे यूरोपियन हिकारत से सम्बोधित करते थे। भारतीय भी हालांकि अफ्रीकी नस्ल की तुलना में साफ थे पर जेल में उनके साथ भी वही अपमानजनक बर्ताव होता था जो अंग्रेज़ गोरे अफ्रीकी लोगों के साथ करते थे। पोलॉक के अनुसार गांधी टोपी का रूप और आकार वहीं से आया है।
आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और मोरारजी देसाई, ने गांधी टोपी नियमित रूप से पहनी है। पुराने सभी नेता जो कांग्रेस के थे यह टोपी पहनते थे। रफी अहमद किदवई के बारे में कहा जाता है कि वे टोपी के बाहर निकलते नहीं थे। जगजीवन राम, वायबी चह्वाण, चन्द्रभानु गुप्त, चौधरी चरण सिंह, डीपी मिश्र, आदि स्वाधीनता संग्राम के सेनानी रह चुके कद्दावर और प्रभावी नेताओं की वेशभूषा के तो अंग में ही गांधी टोपी थी। लेकिन धीरे धीरे जैसे बहुत सी चीजें बदलती है यह टोपी फैशन भी आउटडेटेड हो गया।
पर अचानक 2012 में जब अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन शुरू हुआ तो अन्ना के तर्ज पर यह टोपी फिर लोकप्रिय हो गयी और अन्ना आंदोलन से जुड़े लोग इसे पहनने लगे। अन्ना खुद को गांधीवादी कहते हैं और वे यह टोपी नियमित पहनते भी हैं तो, उनके आंदोलन के लोकप्रिय होते ही यह टोपी भी पुनः चलन में आ गयी। बाद में इस टोपी के दोनों ओर मैं हूँ अन्ना लिखा जाने लगा। जब अन्ना आंदोलन से निकले नेता अरविंद केजरीवाल ने राजनीति की मुख्य धारा में आने के लिये आम आदमी पार्टी की स्थापना की तो, टोपी तो यही रही बस उसके दोनों तरफ मैं हूँ आम आदमी लिखा जाने लगा। इसी की देखादेखी समाजवादी पार्टी ने इसी आकार और रूप की लाल टोपी पहनना शुरू कर दिया।
गांधी पहले यूरोपीय वेशभूषा धारण करते थे, पर जब वे भारत आये और भारत दर्शन कार्यक्रम शुरू किया तो उन्हें भारत की विविधता के साथ साथ भारत की विपन्नता के भी दर्शन हुए। गांधी एक व्यवहारिक आदर्शवादी थे। आदर्शवादी होना बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात है उन आदर्शों को खुद पर लागू कर के उन आदर्शों का पालन करना । गांधी इन्ही विशिष्टिताओं के कारण संसार के नेताओं में सबसे अलग दिखते हैं। 15 अप्रैल 1917 को गांधी जी चंपारण के मोतिहारी स्टेशन पर जब उतरते हैं तो वे कठियावाड़ी वेशभूषा, एक शर्ट, नीचे एक धोती, एक घड़ी, एक सफेद गमछा, चमड़े का जूता और एक टोपी पहने थे। चंपारण के एक किसान राजकुमार शुक्ल उनके साथ थे। वहां के किसानों पर अंग्रेज़ नील की खेती के लिए बहुत दबाव डालते थे। नील से अंग्रेजों को व्यावसायिक लाभ मिलता था। इस कारण वे चावल या दूसरे अनाज की खेती नहीं कर पाते थे। जब गांधी जी ने सुना कि नील फैक्ट्रियों के मालिक निम्न जाति के औरतों और मर्दों को जूते नहीं पहनने देते हैं तो उन्होंने तुरंत जूते पहनने बंद कर दिए।
जब गांधी, चंपारण के किसानों के बीच लोकप्रिय होने लगे तो ब्रिटिश सरकार ने उन्हें चंपारण छोड़ने का आदेश दे दिया। गांधी जी ने 16 और 18 अप्रैल 1917 के बीच चार पत्र, जिसमें दो उन्होंने सरकार को लिखे जिसमें, इस आदेश को न मानने का अपना इरादा जाहिर किया था। शेष दो पत्र अंग्रेज़ ज़मीदारों द्वारा निलहे किसानों के शोषण और अत्याचार से सम्बंधित था। 8 नवंबर 1917 को गांधीजी ने सत्याग्रह का दूसरा चरण शुरू किया था। अपने साथ वेे काम कर रहे कार्यकर्ताओं को लेकर चंपारण पहुंचें. इनमें से छह महिलाएं थीं. अवंतिका बाई, उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी, मनीबाई पारीख, आनंदीबाई, श्रीयुत दिवाकर (वीमेंस यूनिवर्सिटी ऑफ़ पूना की रजिस्ट्रार) का नाम इन महिलाओं में शामिल था। इसके साथ-साथ खेती और बुनाई का काम भी उन्हें सिखाया गया. लोगों को कुंओ और नालियों को साफ-सुथरा रखने के लिए प्रशिक्षित किया गया. गांधी जी ने कस्तूरबा को कहा कि वो खेती करने वाली औरतों को हर रोज़़ नहाने और साफ-सुथरा रहने की बात समझाए।
कस्तूरबा जब औरतों के बीच गईं तो उन औरतों में से एक ने कहा, “बा, आप मेरे घर की हालत देखिए. आपको कोई सूटकेस या अलमारी दिखता है जो कपड़ों से भरा हुआ हो? मेरे पास केवल एक यही एक साड़ी है जो मैंने पहन रखी है. आप ही बताओ बा, मैं कैसे इसे साफ करूं और इसे साफ करने के बाद मैं क्या पहनूंगी? आप महात्मा जी से कहो कि मुझे दूसरी साड़ी दिलवा दे ताकि मैं हर रोज इसे धो सकूं.”
यह सुनकर गांधी जी ने अपना चोगा बा को दे दिया था उस औरत को देने के लिए और इसके बाद से ही उन्होंने चोगा ओढ़ना बंद कर दिया था। 1918 में जब वो अहमदाबाद में सूती मिल मज़दूरों की लड़ाई में शरीक हुए तो उन्होंने देखा कि उनकी पगड़ी में जितने कपड़े लगते है, उसमें ‘कम से कम चार लोगों का तन ढका जा सकता है.’। उन्होंने उस वक्त पगड़ी पहनना छोड़ दिया था।
31 अगस्त 1920 को खेड़ा में किसानों के सत्याग्रह के दौरान गांधी जी ने खादी को लेकर प्रतिज्ञा ली ताकि किसानों को कपास की खेती के लिए मजबूर ना किया जा सके. मैनचेस्टर के मिलों में कपास पहुंचाने के लिए किसानों को इसकी खेती के लिए मजबूर किया जाता था.उन्होंने प्रण लेते हुए कहा था,”आज के बाद से मैं ज़िंदगी भर हाथ से बनाए हुए खादी के कपड़ों का इस्तेमाल करूंगा।”
1921 में गांधी जी मद्रास से मदुरई जा रहे थे। ट्रेन में हर यात्री विदेशी कपड़ों में मौजूद था । गांधी जी ने उनसे खादी पहनने का आग्रह किया। कुछ ने सिर हिलाते हुए कहा कि,
” हम इतने गरीब है कि खादी नहीं खरीद पाएंगे.”
गांधीजी कहते हैं,
“मैंने इस तर्क के पीछे की सच्चाई को महसूस किया. मेरे पास बनियान, टोपी और नीचे तक धोती थी. ये पहनावा अधूरी सच्चाई बयां करती थी जहां लाखों लोग निर्वस्त्र रहने के लिए मजबूर थे। चार इंच की लंगोट के लिए जद्दोजहद करने वाले लोगों की नंगी पिंडलियां कठोर सच्चाई बयां कर रही थी। मैं उन्हें क्या जवाब दे सकता था जब तक कि मैं ख़ुद उनकी पंक्ति में आकर नहीं खड़ा हो सकता हूं तो. मदुरई में हुई सभा के बाद अगली सुबह से कपड़े छोड़कर मैंने ख़ुद को उनके साथ खड़ा किया.”
गांधी जी ने भारत को जितनी गहनता के साथ समझा और जाना था, शायद ही उतनी गहराई से किसी ने यहां के जनमानस की थाह ली थी। साहित्य के क्षेत्र में तुलसी ने, धर्म के क्षेत्र में गौतम बुद्ध ने और राजनीति के क्षेत्र में गांधी ने भारतीय जनमानस को आपाद मस्तक प्रभावित किया है।
भारत के इतिहास में 1918 से 1921 के बीच चलने वाले असहयोग आंदोलन की बहुत बड़ी भूमिका है। 1914 में
जब गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौटे तो वे भारत के लिये अनजान नहीं थे। दक्षिण अफ्रीका से लौट कर बम्बई बंदरगाह पर गांधी जी उतरते हुए जो फ़ोटो उपलब्ध है उसमें वे एक पगड़ी बांधे दिखते हैं। वापस आकर उन्होंने उस समय के कांग्रेस के बड़े नेता और बम्बई के वकील गोपाल कृष्ण गोखले से मिले। गोखले ने उन्हें पूरा भारत एक साल तक घूमने और भारत को देखने की सलाह दी। गांधी का भारत दर्शन कार्यक्रम शुरू हुआ। इसी के बाद जब उन्होंने असहयोग आंदोलन शुरू किया तो यह टोपी अस्तित्व में आ गयी। यह टोपी सुराजी टोपी कहलाने लगी और अंग्रेज़ो ने एक समय तो इसके पहनने पर प्रतिबंध लगाने की भी बात सोची थी। पर गांधी स्वयं यह टोपी बहुत कम लगाते थे। उनके बहुत ही कम चित्र इस टोपी में उपलब्ध हैं।
भारत मे यह टोपी कैसे और किस प्रकार चर्चित और चलन में आयी इसका भी एक रोचक इतिहास है। 1919 में महात्मा गांधी उत्तर प्रदेश के रामपुर शहर में गये थे। तब रामपुर रियासत के नवाब सैयद हामिद अली खान बहादुर ( 1889 से 1930 ) थे। गांधी जी की उनसे मुलाकात रामपुर की कोठी खास में निर्धारित थी। जब वे नवाब रामपुर से मिलने के लिये निकलने को हुये तो नवाब के जो अधिकारी गांधी जी को मुलाकात की सूचना देने के लिये आये थे, ने उनसे दरबार की एक परंपरा के बारे में गांधी जी को बताया। उक्त परंपरा के अनुसार, नवाब के अतिथि को नवाब के पास उनके दरबार मे जाने के लिये सिर ढंकना ज़रूरी होता है। गांधी जी के पास कोई अन्य पगड़ी या टोपी ही नही थी, जिससे वे अपना सिर ढँक सके। तब रामपुर के बाजार में गांधी जी के पसंद और जो उनके सिर में फिट हो जाय, वैसी टोपी की तलाश हुयी। लेकिन जब यह बात पता चली तो खिलाफत आंदोलन के मशहूर अली ब्रदर्स मुहम्मद अली और शौकत अली की मां आबादी बेगम से खुद एक सादी सी टोपी सिलवाई और तब वह टोपी पहन कर गांधी जी नवाब से मिलने कोठी खास में गये। यह टोपी चूंकि गांधी जी के लिये ही खास तौर पर तैयार की गयी थी, अतः इस टोपी का नाम गांधी टोपी पड़ गया। यह बात हिंदुस्तान टाइम्स को रामपुर रियासत के इतिहासकार नफीस सिद्दीकी ने बतायी है। किश्ती के आकार की यह टोपी कभी आज़ादी के लड़ाकों यानी सुराजियों की प्रिय टोपी बन जाएगी यह आबादी बेगम ने कभी सोचा भी नहीं होगा।
1919 से 1921 के बीच गांधी जी की कुछ तस्वीरें टोपी पहने हुये मिलती हैं। पर 1921 के बाद गांधी जी ने यह टोपी पहनना कम या बिल्कुल ही बंद कर दिया। लेकिन यह टोपी आज भी नेता बनने की एक निशानी बनी हुयी है। आज़ादी के संघर्ष के दौरान सभी नेताओं ने यह टोपी धारण की है। यह टोपी ब्रिटिश हुक़ूमत के विरुद्ध आंदोलन का एक प्रतीक बन चुकी थी। अंग्रेज़ो ने इसे प्रतिबंधित करने पर भी एक बार गम्भीरता से विचार किया था। लेकिन बाद में उन्होंने यह विचार त्याग दिया था। स्वाधीनता संघर्ष के दौरान हांथ से काते गये सूत से बनी यह टोपी देश के आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता की भी प्रतीक थी। ब्रिटेन सोलर हैट या अन्य हैट के समक्ष यह टोपी स्वदेशी जवाब था। कांग्रेस सेवादल की तो यह यूनिफॉर्म ही बन गयी थी।
गांधी टोपी के आकार और स्वरूप को लेकर एक और रोचक विवरण मिलता है। यह तो पता नहीं चला कि रामपुर में बनी टोपी का डिजाइन महात्मा गांधी द्वारा दिया गया था या अली ब्रदर्स की माता जी के दर्जी के दिमाग की उपज थी पर दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी के निकट सहयोगी रहे हेनरी पोलॉक ने यह रहस्योद्घाटन किया कि यह इसी प्रकार की टोपी गांधी पहले दक्षिण अफ्रीका में पहन चुके थे। दक्षिण अफ्रीका के कैदियों को जो जेल में रखे जाते थे तो उन्हें गांधी टोपी जैसी टोपी ही पहननी पड़ती थी। वहां सभी कैदियों को नीग्रो कहा जाता था। निग्गर या नीग्रो एक रंगभेदी और अपमानजनक शब्द है, जो अफ्रीका की काले रंग के निवासियों को गोरे यूरोपियन हिकारत से सम्बोधित करते थे। भारतीय भी हालांकि अफ्रीकी नस्ल की तुलना में साफ थे पर जेल में उनके साथ भी वही अपमानजनक बर्ताव होता था जो अंग्रेज़ गोरे अफ्रीकी लोगों के साथ करते थे। पोलॉक के अनुसार गांधी टोपी का रूप और आकार वहीं से आया है।
आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और मोरारजी देसाई, ने गांधी टोपी नियमित रूप से पहनी है। पुराने सभी नेता जो कांग्रेस के थे यह टोपी पहनते थे। रफी अहमद किदवई के बारे में कहा जाता है कि वे टोपी के बाहर निकलते नहीं थे। जगजीवन राम, वायबी चह्वाण, चन्द्रभानु गुप्त, चौधरी चरण सिंह, डीपी मिश्र, आदि स्वाधीनता संग्राम के सेनानी रह चुके कद्दावर और प्रभावी नेताओं की वेशभूषा के तो अंग में ही गांधी टोपी थी। लेकिन धीरे धीरे जैसे बहुत सी चीजें बदलती है यह टोपी फैशन भी आउटडेटेड हो गया।
पर अचानक 2012 में जब अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन शुरू हुआ तो अन्ना के तर्ज पर यह टोपी फिर लोकप्रिय हो गयी और अन्ना आंदोलन से जुड़े लोग इसे पहनने लगे। अन्ना खुद को गांधीवादी कहते हैं और वे यह टोपी नियमित पहनते भी हैं तो, उनके आंदोलन के लोकप्रिय होते ही यह टोपी भी पुनः चलन में आ गयी। बाद में इस टोपी के दोनों ओर मैं हूँ अन्ना लिखा जाने लगा। जब अन्ना आंदोलन से निकले नेता अरविंद केजरीवाल ने राजनीति की मुख्य धारा में आने के लिये आम आदमी पार्टी की स्थापना की तो, टोपी तो यही रही बस उसके दोनों तरफ मैं हूँ आम आदमी लिखा जाने लगा। इसी की देखादेखी समाजवादी पार्टी ने इसी आकार और रूप की लाल टोपी पहनना शुरू कर दिया।
गांधी पहले यूरोपीय वेशभूषा धारण करते थे, पर जब वे भारत आये और भारत दर्शन कार्यक्रम शुरू किया तो उन्हें भारत की विविधता के साथ साथ भारत की विपन्नता के भी दर्शन हुए। गांधी एक व्यवहारिक आदर्शवादी थे। आदर्शवादी होना बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात है उन आदर्शों को खुद पर लागू कर के उन आदर्शों का पालन करना । गांधी इन्ही विशिष्टिताओं के कारण संसार के नेताओं में सबसे अलग दिखते हैं। 15 अप्रैल 1917 को गांधी जी चंपारण के मोतिहारी स्टेशन पर जब उतरते हैं तो वे कठियावाड़ी वेशभूषा, एक शर्ट, नीचे एक धोती, एक घड़ी, एक सफेद गमछा, चमड़े का जूता और एक टोपी पहने थे। चंपारण के एक किसान राजकुमार शुक्ल उनके साथ थे। वहां के किसानों पर अंग्रेज़ नील की खेती के लिए बहुत दबाव डालते थे। नील से अंग्रेजों को व्यावसायिक लाभ मिलता था। इस कारण वे चावल या दूसरे अनाज की खेती नहीं कर पाते थे। जब गांधी जी ने सुना कि नील फैक्ट्रियों के मालिक निम्न जाति के औरतों और मर्दों को जूते नहीं पहनने देते हैं तो उन्होंने तुरंत जूते पहनने बंद कर दिए।
जब गांधी, चंपारण के किसानों के बीच लोकप्रिय होने लगे तो ब्रिटिश सरकार ने उन्हें चंपारण छोड़ने का आदेश दे दिया। गांधी जी ने 16 और 18 अप्रैल 1917 के बीच चार पत्र, जिसमें दो उन्होंने सरकार को लिखे जिसमें, इस आदेश को न मानने का अपना इरादा जाहिर किया था। शेष दो पत्र अंग्रेज़ ज़मीदारों द्वारा निलहे किसानों के शोषण और अत्याचार से सम्बंधित था। 8 नवंबर 1917 को गांधीजी ने सत्याग्रह का दूसरा चरण शुरू किया था। अपने साथ वेे काम कर रहे कार्यकर्ताओं को लेकर चंपारण पहुंचें. इनमें से छह महिलाएं थीं. अवंतिका बाई, उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी, मनीबाई पारीख, आनंदीबाई, श्रीयुत दिवाकर (वीमेंस यूनिवर्सिटी ऑफ़ पूना की रजिस्ट्रार) का नाम इन महिलाओं में शामिल था। इसके साथ-साथ खेती और बुनाई का काम भी उन्हें सिखाया गया. लोगों को कुंओ और नालियों को साफ-सुथरा रखने के लिए प्रशिक्षित किया गया. गांधी जी ने कस्तूरबा को कहा कि वो खेती करने वाली औरतों को हर रोज़़ नहाने और साफ-सुथरा रहने की बात समझाए।
कस्तूरबा जब औरतों के बीच गईं तो उन औरतों में से एक ने कहा, “बा, आप मेरे घर की हालत देखिए. आपको कोई सूटकेस या अलमारी दिखता है जो कपड़ों से भरा हुआ हो? मेरे पास केवल एक यही एक साड़ी है जो मैंने पहन रखी है. आप ही बताओ बा, मैं कैसे इसे साफ करूं और इसे साफ करने के बाद मैं क्या पहनूंगी? आप महात्मा जी से कहो कि मुझे दूसरी साड़ी दिलवा दे ताकि मैं हर रोज इसे धो सकूं.”
यह सुनकर गांधी जी ने अपना चोगा बा को दे दिया था उस औरत को देने के लिए और इसके बाद से ही उन्होंने चोगा ओढ़ना बंद कर दिया था। 1918 में जब वो अहमदाबाद में सूती मिल मज़दूरों की लड़ाई में शरीक हुए तो उन्होंने देखा कि उनकी पगड़ी में जितने कपड़े लगते है, उसमें ‘कम से कम चार लोगों का तन ढका जा सकता है.’। उन्होंने उस वक्त पगड़ी पहनना छोड़ दिया था।
31 अगस्त 1920 को खेड़ा में किसानों के सत्याग्रह के दौरान गांधी जी ने खादी को लेकर प्रतिज्ञा ली ताकि किसानों को कपास की खेती के लिए मजबूर ना किया जा सके. मैनचेस्टर के मिलों में कपास पहुंचाने के लिए किसानों को इसकी खेती के लिए मजबूर किया जाता था.उन्होंने प्रण लेते हुए कहा था,”आज के बाद से मैं ज़िंदगी भर हाथ से बनाए हुए खादी के कपड़ों का इस्तेमाल करूंगा।”
1921 में गांधी जी मद्रास से मदुरई जा रहे थे। ट्रेन में हर यात्री विदेशी कपड़ों में मौजूद था । गांधी जी ने उनसे खादी पहनने का आग्रह किया। कुछ ने सिर हिलाते हुए कहा कि,
” हम इतने गरीब है कि खादी नहीं खरीद पाएंगे.”
गांधीजी कहते हैं,
“मैंने इस तर्क के पीछे की सच्चाई को महसूस किया. मेरे पास बनियान, टोपी और नीचे तक धोती थी. ये पहनावा अधूरी सच्चाई बयां करती थी जहां लाखों लोग निर्वस्त्र रहने के लिए मजबूर थे। चार इंच की लंगोट के लिए जद्दोजहद करने वाले लोगों की नंगी पिंडलियां कठोर सच्चाई बयां कर रही थी। मैं उन्हें क्या जवाब दे सकता था जब तक कि मैं ख़ुद उनकी पंक्ति में आकर नहीं खड़ा हो सकता हूं तो. मदुरई में हुई सभा के बाद अगली सुबह से कपड़े छोड़कर मैंने ख़ुद को उनके साथ खड़ा किया.”
गांधी जी ने भारत को जितनी गहनता के साथ समझा और जाना था, शायद ही उतनी गहराई से किसी ने यहां के जनमानस की थाह ली थी। साहित्य के क्षेत्र में तुलसी ने, धर्म के क्षेत्र में गौतम बुद्ध ने और राजनीति के क्षेत्र में गांधी ने भारतीय जनमानस को आपाद मस्तक प्रभावित किया है।