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    गेंदालाल दीक्षित : चंबल मे क्रांति की मशाल जलाने वाला ब्राह्मण

    गेंदालाल दीक्षित : चंबल मे क्रांति की मशाल जलाने वाला ब्राह्मण
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    30 नवम्बर, 1888; 21 दिसम्बर, 1920

    पंडित गेंदालाल दीक्षित का जन्म 30 नवम्बर सन् 1888 को ज़िला आगरा, उत्तर प्रदेश की तहसील बाह के मई
    नामक गाँव में सनातनी ब्राह्मण परिवार मे हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित भोलानाथ दीक्षित था। गेंदालाल दीक्षित की आयु मुश्किल से 3 वर्ष की रही होगी कि माता का निधन हो गया। बिना माँ के बच्चे का जो हाल होता है, वही इनका भी हुआ। हमउम्र बच्चों के साथ निरंकुश खेलते-कूदते कब बचपन बीत गया, पता ही न चला; परन्तु एक बात अवश्य हुई कि बालक के अन्दर प्राकृतिक रूप से अप्रतिम वीरता का भाव प्रगाढ़ होता चला गया। गाँव के विद्यालय से हिन्दी में प्राइमरी परीक्षा पास कर इटावा से मिडिल और आगरा से मैट्रीकुलेशन किया। आगे पढ़ने की इच्छा तो थी, परन्तु परिस्थितिवश उत्तर प्रदेश में औरैया ज़िले की डीएवी पाठशाला में अध्यापक हो गये।

    आजादी की जंग के लिए एक बैनर के नीचे युवाओं को लाना बहुत आवश्यक था। इसलिए पंडित गेंदालाल दीक्षित ने शिवाजी समिति और मातृवेदी संस्थाओं को स्थापित कर युवाओं को इस ओर आकर्षित करना प्रारम्भ किया। दोनों समिति से अनेक युवक इन वसंस्थाओं की क्रांतिकारी गतिविधियों के सक्रिय सदस्य बन गये थे। संस्था मातृवदी में ही चम्बल का दस्यु पंचम सिंह भी शामिल हो गया, जिसके बाद क्रांतिकारियों की ताकत कई गुना बढ़ गई और मैनपुरी षड़यंत्र की कहानी को रचा गया।

    अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आन्दोलन में चम्बल के किनारे बसी हथकान रियासत के हथकान थाने में सन् 1909 में डकैत पंचम सिंह, पामर और मुस्कुंड के सहयोग से क्रान्तिकारी पडिण्त गेंदालाल दीक्षित ने थाने पर हमला कर 21 पुलिस कर्मियों को मौत के घाट उतार दिया और थाना लूट लिया। इन्हीं डकैतों ने क्रान्तिकारियों गेंदालाल दीक्षित, अशफाक उल्ला खान के नेतृत्व में सन 1909 में ही पिन्हार तहसील का खजाना लूटा और उन्हीं हथियारों से 9 अगस्त 1915 को हरदोई से लखनऊ जा रही ट्रेन को काकोरी रेलवे स्टेशन पर रोककर सरकारी खजाना लूटा।

    बटेश्वर के रहने वाले पंडित गेंदालाल दीक्षित के प्रयास से मातृवेदी संस्था में दस्यु पंचम सिंह शामिल हुआ, तो उनके पास 500 सशस्त्र घुड़सवार, 200 पैदल और लाखों रुपये की संपत्ति क्रांतिकारी दल के हाथ लग गई थी, जिससे अंग्रेज विरोधी षड़यंत्र अधिक मजबूत हो गया। इनमें से अनेक सदस्य मैनपुरी षडयंत्र केस में बंदी बना लिये गये थे। यह केस 10 महीने चला। एक बार पंडित गेंदालाल दीक्षित पुलिस और क्रांतिकारियों की मुठभेड़ में घायल हो गये थे और छर्रे के कारण उनकी बायीं आंख बेकार हो गई थी। पुलिस ने गिरफ्तार कर ग्वालियर किले में बंद कर दिया था, जहां पंडित गेंदालाल को भीषण यातनायें दी गईं।

    जेल में गेंदालाल दीक्षित बहुत दुर्बल हो गये थे। वे चल भी नहीं पा रहे थे। इसलिए उनहोंने जेल में पहुंचकर पुलिसवालों से कहा कि बंगाल तथा बंम्बई के विद्रोहियों में से बहुतों को वे जानते हैं, पुलिस वालों को उन पर निश्चय हो गया था कि किले के कष्टों के कारण यह सारा हाल खोल देगा। गेंदालाल दीक्षित को सरकारी गवाह समझा जाने लगा और सरकारी गवाओं के साथ रख दिया। आधी रात के समय जब पहरा बदला गया, तो गेंदालाल रामनारायण के साथ भाग निकले। रामनारायण ने उन्हें एक कोठरी में बंद किया और वहां से भाग गया। गेंदालाल उस कोठरी में तीन दिन तक बंद रहे। जेल में मिली यातनाओं और फिर तीन दिन तक एक बंद कोठरी में भूखा प्यासा रहने की वजह से उनका शरीर अत्यधिक दुर्बल हो गया, वे ठीक से भी नहीं चल पा रहे थे।
    वे कोटा से आगरा आ गये, यहां किसी ने साथ नहीं दिया, तो वे अपने परिवार के पास चले गए, लेकिन परिवार वालों ने भी उन्हें अपने साथ रखने से इंकार कर दिया। इसके बाद वे अपनी पत्नी के साथ दिल्ली चले गये। यहां पर उन्होंने अपना अंतिम समय बिताया। 21 दिसंबर 1920 को उनका स्वर्गवास हो गया।

    मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया


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