Gandhi : क्या महात्मा की कोई जाति थी?
क्या #महात्मा की कोई #जाति थी?
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(अनुवादक: निलेश शेवगाँवकर; चिटगाँव-बांग्लादेश से )
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मार्च 1922 में गाँधी को राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया.
जब उन्हें मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश किया गया तो उस वक़्त के क़ानून के मुताबिक़ उन्हें जाति अथवा व्यवसाय के आधार पर अपनी पहचान बताने को कहा गया. गाँधी ने जवाब दिया कि वह एक किसान और बुनकर हैं. बौखलाकर मजिस्ट्रेट ने दुबारा यही प्रश्न किया और उसे यही जवाब मिला.
हमें हाल ही में याद दिलाया गया कि गाँधी एक बनिया थे. लेकिन वक़्त में पीछे जाकर हम पायेंगे कि 1922 में या आज भी बहुत कम बनिये, बुनकर अथवा काश्तकार थे/ हैं फिर भी गाँधी द्वारा अदालत में स्वयं दिया गया विवरण उन पर सटीक बैठता था क्यूँ कि साबरमती आश्रम में वो कोई ट्रेडिंग नहीं करते थे अपितु सूत बुनते थे और फ़सलों और मवेशियों के साथ नित नये प्रयोग करते थे. उस लिहाज से वे बनिया न होकर बुनकर और काश्तकार ही थे.
अहमदाबाद कोर्ट के समक्ष दिये गये इस बयान से पता चलता है कि गाँधी जी के लिये जाति-मूल का प्रश्न उनके निजि और सार्वजानिक जीवन में गौण था और वो इसे उत्तरोत्तर और अधिक गौण करने के लिए कृतसंकल्पित थे.
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उनके इस संकल्प का प्रदर्शन उन्होंने पहले भी किया है. सन 1888 में अपने 20 वें जन्मदिवस से कुछ पहले उन्होंने जहाज से इंग्लैंड जा कर कानून की पढाई करने का निश्चय किया. उस समय समुद्रपार की यात्रा को पाप माना जाता था और इससे भयाक्रांत मोढ़ बनिया समाज के मुखिया ने उन्हें समुद्रपार यात्रा पर समाज से बाहर करने की चेतावनी दी, लेकिन वह संकल्पित युवक इसकी परवाह न करते हुए भी विदेश गया.
अपनी जीवनी में गाँधी याद करते हुए लिखते हैं कि उन की यात्रा से कुछ दिन पहले तक इस निर्णय से उनका जीवन दूभर हो चुका था. उन्हें हर समय लोग अजीब निगाह से देखते थे और उन्हें लोगों के ताने सहने पड़ते थे. एक बार तो उन्हें सड़क पर लोगों ने घेर लिया और उनके ख़िलाफ़ नारेबाज़ी की गयी. उन्हें और उनके भाई को यह सब चुपचाप सहना पड़ा.
उस समय के बनिया समाज में और कुछ हद तक आज भी, कई विसंगतियाँ मौजूद थीं फिर भी गाँधी ने लंदन में रहते हुये एक बड़ा क़दम उठाया. उन्होंने एक इसाई जोशिया ओल्डफील्ड के साथ न केवल आवास बल्कि भोजन/ खानपान आदि भी शेयर किया. बाद में दक्षिण अफ्रीका में वो और कस्तूरबा ने अपना घर और रसोई को एक श्वेत दम्पति हेनरी और मिली पोलाक के साथ शेयर किया. हेनरी एक यहूदी थे और मिली एक इसाई थीं.
उस वक़्त जोहान्सबर्ग सबसे अधिक नस्लभेदी देश का सर्वाधिक नस्लभेदी शहर था लेकिन गाँधी और पोलाक परिवार ने मिलकर भारतीय जाति व्यवस्था और यूरोपियन रँग/ नस्लभेद को चुनौती दी और उसे तोडा.
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दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह के दौरान एक पारसी जिनका नाम रुस्तमजी था, एक मुसलमान जिनका नाम कछालिया था और एक तमिल जिनका नाम नायडू था, गाँधी के सबसे क़रीबी साथी थे.
सारे सामाजिक जातिगत बन्धनों को तोडकर उन्हें अपने कर्म में प्रवृत्त देखकर अपने साथी और नेता के बारे में पोलक लिखते हैं कि -“गाँधी जन्म से एक वैष्णव बनिया होते हुए अपने साथियों के लिये एक ब्राह्मणतुल्य शिक्षक जैसे सदाचारी हैं जो अपने विचारों से उद्वेग्वान क्षत्रीय तुल्य होते हुए भी अपनी स्वयं की पसंद से एक शूद्र हैं जो सादगी और समर्पण के साथ एक विनम्र सेवक की तरह अपने साथियों और मानव की सेवा करते हैं.
कहते हैं कि एक बार श्री रामकृष्ण परमहंस ने अपने जातिगत बन्धनों से मुक्त होने पर एक दलित के गन्दे घर को अपने केश से झाड़ू लगाई थी ताकि समाज से छुआछूत समाप्त हो सके. दूसरे एक दीवान के पुत्र गाँधी हैं जो सामजिक वर्जनों को तोडकर न केवल विजातीय/ विधर्मी लोगों के साथ रहते, खाते-पीते थे बल्कि स्वयं अपने हाथों से आवास का पाख़ाना भी साफ़ करते हैं ताकि घर और विचारों की शुद्धि हो सके.”
पोलाक आगे लिखते हैं कि गाँधी सभी जातियों के होते हुये भी किसी जाति विशेष के न थे. गाँधी की धार्मिक आस्था पर पोलाक लिखते हैं कि –“गाँधी के लिए धर्म सब को समाहित करने वाली सहिष्णुता का नाम था”. जन्म से एक हिन्दू होते हुये गाँधी सभी मुसलमानों, ईसाईयों, पारसियों, यहूदियों, बौद्धों, कंफ्युशियस वादियों को अपना आध्यात्मिक बन्धु मानते थे.
गाँधी कभी धर्मों में भेदभाव नहीं करते थे और यह मानते थे कि सभी धर्म मुक्ति का मार्ग दिखलाते हैं और ईश्वर को देखने- समझने का ज़रिया हैं. उनके लिये मनुष्यता ही प्रथम पहचान थी, जाति-धर्म आदि गौण थे.
अपने इन्ही विचारों और समतुल्य व्यवहार के चलते वो दक्षिण अफ्रीका में पीड़ित समुदाय के सर्वमान्य नेता माने जाने लगे और विभिन्न मतों के उनके मित्र, अनुयायी, सहयोगी अथवा अन्य सभी निष्पक्ष न्याय के लिए उनकी तरफ देखते थे.
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1915 में भारत वापसी पर गाँधी जी ने अहमदाबाद में सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की और शुरूअ में वहाँ अछूत डेढ़ जाति के एक परिवार को स्थान दिया जिस में दुधाभाई, उसकी पत्नी दानीबेन और छोटी बच्ची लक्ष्मी शामिल थे. इस निर्णय का चंहुओर विरोध हुआ और यहाँ तक कि कस्तूर बा भी परम्परावादियों को मुँह चिढ़ाते इस निर्णय से अप्रसन्न थीं. डेढ़ परिवार को कुँए से पानी नहीं लेने दिया जाता था. गाँधी जी के यह कहने कि यदि इन्हें पानी नहीं लेने दिया गया तो मैं भी इस कुँए का पानी नहीं पियूँगा; के बाद इस परिवार को स्वीकृति मिली.
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इसके बाद अपने तीन दशक के सामजिक और राजनैतिक जीवन में गाँधी जी ने कदम कदम पर जातिवाद, सम्प्रदायवाद और छुआछूत के ख़िलाफ़ लगातार काम किया, इसका विरोध किया और समाज को एकीकृत किया. उनके आश्रमों में लोग जाति बंधन से मुक्त होकर साथ रहते, खाते-पीते और व्यवहार करते थे. उन्होंने हर हिन्दू से अपने मन-मस्तिष्क से जातिवाद और छुआछूत दूर कर के सभी समाजों के साथ बराबरी, व्यवहार विवाह आदि करने का आह्वान किया. उनके स्वयं के चार पुत्र हलाँकि जन्म से बनिया थे लेकिन उन्होंने दो पुत्रियों को गोद लिया जिन में पहली ऊपर वर्णित डेढ़ समाज की अछूत बालिका लक्ष्मी थी. दूसरी मानद पुत्री एक अंग्रेज़ मेरिलिन स्लेड थीं जो बाद में मीराबेन के नाम से जानी गयी. गाँधी जी के परम मित्र एक ईसाई पादरी सी ऍफ़ एनड्रूज़ थे और गाँधी जी ने भारत के दो सब से बड़े सम्प्रदायों हिन्दू और मुसलमानों को मिलाने में ही अपने प्राणों की आहूति भी दी.
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अधिकतर राजनैतिक दलों की तरह बीजेपी भी जाति और धर्म की राजनीति से ऊपर नहीं उठ सकी है जो व्यवहारत: दलितों को जाटव-ग़ैर जाटव में, ओबीसी को यादव-ग़ैर यादव में, भारतीयों को हिन्दू और मुसलामानों में बाँटती है अत: बीजेपी अध्यक्ष द्वारा महात्मा गाँधी को उनकी जातीय पहचान तक सिमित रखना पूरी तरह समझा जा सकता है. अमित शाह की टिप्पणी उस कभी न भरने वाली विशाल वैचारिक खाई को दर्शाती है जो उनकी सोच और नैतिक चेतना के बीच और उस शख्स के बीच है जिसे हम #राष्ट्रपिता कहते हैं.
(इन्डियन एक्सप्रेस में प्रकाशित प्रख्यात इतिहासकार श्री रामचन्द्र गुहा के आलेख का हिंदी अनुवाद.)
अनुवादक
निलेश शेवगाँवकर
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(अनुवादक: निलेश शेवगाँवकर; चिटगाँव-बांग्लादेश से )
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मार्च 1922 में गाँधी को राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया.
जब उन्हें मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश किया गया तो उस वक़्त के क़ानून के मुताबिक़ उन्हें जाति अथवा व्यवसाय के आधार पर अपनी पहचान बताने को कहा गया. गाँधी ने जवाब दिया कि वह एक किसान और बुनकर हैं. बौखलाकर मजिस्ट्रेट ने दुबारा यही प्रश्न किया और उसे यही जवाब मिला.
हमें हाल ही में याद दिलाया गया कि गाँधी एक बनिया थे. लेकिन वक़्त में पीछे जाकर हम पायेंगे कि 1922 में या आज भी बहुत कम बनिये, बुनकर अथवा काश्तकार थे/ हैं फिर भी गाँधी द्वारा अदालत में स्वयं दिया गया विवरण उन पर सटीक बैठता था क्यूँ कि साबरमती आश्रम में वो कोई ट्रेडिंग नहीं करते थे अपितु सूत बुनते थे और फ़सलों और मवेशियों के साथ नित नये प्रयोग करते थे. उस लिहाज से वे बनिया न होकर बुनकर और काश्तकार ही थे.
अहमदाबाद कोर्ट के समक्ष दिये गये इस बयान से पता चलता है कि गाँधी जी के लिये जाति-मूल का प्रश्न उनके निजि और सार्वजानिक जीवन में गौण था और वो इसे उत्तरोत्तर और अधिक गौण करने के लिए कृतसंकल्पित थे.
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उनके इस संकल्प का प्रदर्शन उन्होंने पहले भी किया है. सन 1888 में अपने 20 वें जन्मदिवस से कुछ पहले उन्होंने जहाज से इंग्लैंड जा कर कानून की पढाई करने का निश्चय किया. उस समय समुद्रपार की यात्रा को पाप माना जाता था और इससे भयाक्रांत मोढ़ बनिया समाज के मुखिया ने उन्हें समुद्रपार यात्रा पर समाज से बाहर करने की चेतावनी दी, लेकिन वह संकल्पित युवक इसकी परवाह न करते हुए भी विदेश गया.
अपनी जीवनी में गाँधी याद करते हुए लिखते हैं कि उन की यात्रा से कुछ दिन पहले तक इस निर्णय से उनका जीवन दूभर हो चुका था. उन्हें हर समय लोग अजीब निगाह से देखते थे और उन्हें लोगों के ताने सहने पड़ते थे. एक बार तो उन्हें सड़क पर लोगों ने घेर लिया और उनके ख़िलाफ़ नारेबाज़ी की गयी. उन्हें और उनके भाई को यह सब चुपचाप सहना पड़ा.
उस समय के बनिया समाज में और कुछ हद तक आज भी, कई विसंगतियाँ मौजूद थीं फिर भी गाँधी ने लंदन में रहते हुये एक बड़ा क़दम उठाया. उन्होंने एक इसाई जोशिया ओल्डफील्ड के साथ न केवल आवास बल्कि भोजन/ खानपान आदि भी शेयर किया. बाद में दक्षिण अफ्रीका में वो और कस्तूरबा ने अपना घर और रसोई को एक श्वेत दम्पति हेनरी और मिली पोलाक के साथ शेयर किया. हेनरी एक यहूदी थे और मिली एक इसाई थीं.
उस वक़्त जोहान्सबर्ग सबसे अधिक नस्लभेदी देश का सर्वाधिक नस्लभेदी शहर था लेकिन गाँधी और पोलाक परिवार ने मिलकर भारतीय जाति व्यवस्था और यूरोपियन रँग/ नस्लभेद को चुनौती दी और उसे तोडा.
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दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह के दौरान एक पारसी जिनका नाम रुस्तमजी था, एक मुसलमान जिनका नाम कछालिया था और एक तमिल जिनका नाम नायडू था, गाँधी के सबसे क़रीबी साथी थे.
सारे सामाजिक जातिगत बन्धनों को तोडकर उन्हें अपने कर्म में प्रवृत्त देखकर अपने साथी और नेता के बारे में पोलक लिखते हैं कि -“गाँधी जन्म से एक वैष्णव बनिया होते हुए अपने साथियों के लिये एक ब्राह्मणतुल्य शिक्षक जैसे सदाचारी हैं जो अपने विचारों से उद्वेग्वान क्षत्रीय तुल्य होते हुए भी अपनी स्वयं की पसंद से एक शूद्र हैं जो सादगी और समर्पण के साथ एक विनम्र सेवक की तरह अपने साथियों और मानव की सेवा करते हैं.
कहते हैं कि एक बार श्री रामकृष्ण परमहंस ने अपने जातिगत बन्धनों से मुक्त होने पर एक दलित के गन्दे घर को अपने केश से झाड़ू लगाई थी ताकि समाज से छुआछूत समाप्त हो सके. दूसरे एक दीवान के पुत्र गाँधी हैं जो सामजिक वर्जनों को तोडकर न केवल विजातीय/ विधर्मी लोगों के साथ रहते, खाते-पीते थे बल्कि स्वयं अपने हाथों से आवास का पाख़ाना भी साफ़ करते हैं ताकि घर और विचारों की शुद्धि हो सके.”
पोलाक आगे लिखते हैं कि गाँधी सभी जातियों के होते हुये भी किसी जाति विशेष के न थे. गाँधी की धार्मिक आस्था पर पोलाक लिखते हैं कि –“गाँधी के लिए धर्म सब को समाहित करने वाली सहिष्णुता का नाम था”. जन्म से एक हिन्दू होते हुये गाँधी सभी मुसलमानों, ईसाईयों, पारसियों, यहूदियों, बौद्धों, कंफ्युशियस वादियों को अपना आध्यात्मिक बन्धु मानते थे.
गाँधी कभी धर्मों में भेदभाव नहीं करते थे और यह मानते थे कि सभी धर्म मुक्ति का मार्ग दिखलाते हैं और ईश्वर को देखने- समझने का ज़रिया हैं. उनके लिये मनुष्यता ही प्रथम पहचान थी, जाति-धर्म आदि गौण थे.
अपने इन्ही विचारों और समतुल्य व्यवहार के चलते वो दक्षिण अफ्रीका में पीड़ित समुदाय के सर्वमान्य नेता माने जाने लगे और विभिन्न मतों के उनके मित्र, अनुयायी, सहयोगी अथवा अन्य सभी निष्पक्ष न्याय के लिए उनकी तरफ देखते थे.
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1915 में भारत वापसी पर गाँधी जी ने अहमदाबाद में सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की और शुरूअ में वहाँ अछूत डेढ़ जाति के एक परिवार को स्थान दिया जिस में दुधाभाई, उसकी पत्नी दानीबेन और छोटी बच्ची लक्ष्मी शामिल थे. इस निर्णय का चंहुओर विरोध हुआ और यहाँ तक कि कस्तूर बा भी परम्परावादियों को मुँह चिढ़ाते इस निर्णय से अप्रसन्न थीं. डेढ़ परिवार को कुँए से पानी नहीं लेने दिया जाता था. गाँधी जी के यह कहने कि यदि इन्हें पानी नहीं लेने दिया गया तो मैं भी इस कुँए का पानी नहीं पियूँगा; के बाद इस परिवार को स्वीकृति मिली.
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इसके बाद अपने तीन दशक के सामजिक और राजनैतिक जीवन में गाँधी जी ने कदम कदम पर जातिवाद, सम्प्रदायवाद और छुआछूत के ख़िलाफ़ लगातार काम किया, इसका विरोध किया और समाज को एकीकृत किया. उनके आश्रमों में लोग जाति बंधन से मुक्त होकर साथ रहते, खाते-पीते और व्यवहार करते थे. उन्होंने हर हिन्दू से अपने मन-मस्तिष्क से जातिवाद और छुआछूत दूर कर के सभी समाजों के साथ बराबरी, व्यवहार विवाह आदि करने का आह्वान किया. उनके स्वयं के चार पुत्र हलाँकि जन्म से बनिया थे लेकिन उन्होंने दो पुत्रियों को गोद लिया जिन में पहली ऊपर वर्णित डेढ़ समाज की अछूत बालिका लक्ष्मी थी. दूसरी मानद पुत्री एक अंग्रेज़ मेरिलिन स्लेड थीं जो बाद में मीराबेन के नाम से जानी गयी. गाँधी जी के परम मित्र एक ईसाई पादरी सी ऍफ़ एनड्रूज़ थे और गाँधी जी ने भारत के दो सब से बड़े सम्प्रदायों हिन्दू और मुसलमानों को मिलाने में ही अपने प्राणों की आहूति भी दी.
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अधिकतर राजनैतिक दलों की तरह बीजेपी भी जाति और धर्म की राजनीति से ऊपर नहीं उठ सकी है जो व्यवहारत: दलितों को जाटव-ग़ैर जाटव में, ओबीसी को यादव-ग़ैर यादव में, भारतीयों को हिन्दू और मुसलामानों में बाँटती है अत: बीजेपी अध्यक्ष द्वारा महात्मा गाँधी को उनकी जातीय पहचान तक सिमित रखना पूरी तरह समझा जा सकता है. अमित शाह की टिप्पणी उस कभी न भरने वाली विशाल वैचारिक खाई को दर्शाती है जो उनकी सोच और नैतिक चेतना के बीच और उस शख्स के बीच है जिसे हम #राष्ट्रपिता कहते हैं.
(इन्डियन एक्सप्रेस में प्रकाशित प्रख्यात इतिहासकार श्री रामचन्द्र गुहा के आलेख का हिंदी अनुवाद.)
अनुवादक
निलेश शेवगाँवकर