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    गिरीश मिश्रा, संपादक लोकमत, 3/7/2011 पार्ट २

    वैसे मजे की बात तो यही है कि हिंदुत्ववादी धारा सिर्फ अपसंख्यक मुसामानों का ही विरोध करती हो, ऐसा नहीं
     है, ईसाइयों के गिरजाघरों और उनकी बस्तियों पर भी हमले हुए हैं, खास कर इनके प्रभाव वाले अनेक इलाके इसके गवाह हैं. नेहरू की दृष्टि कभी भी ऐसी संकीर्ण नहीं रही. वो सारे हिंदुस्तान को अपना ही मानते थे, और दृष्टि में ऐसी व्यापकता थी जो किसी को पराया नहीं समझती थी- इसे विश्व दृष्टि ही कहा जा सकता है. उनके हंसने पर देश हंसता था और रोने पर देश रोता था. माना कि 1962 में चीन ने धोखे से पीठ पर वार किया. इस सदमे की भूमिका 1964 में उनकी मौत में हो सकती है पर नेहरू की लोकतांत्रिक देन देश की बड़ी पूंजी है- और कश्मीर ही नहीं दुनिया भर में आज उसी रास्ते को स्वीकार किया जा रहा है, जिसे उस 'जवाहर' ने कभी सोचा और जीया था. दरअसल, आज की तारीख में जब भारत-पाक शांति वार्ता जारी है, ऐसे समय चर्चा में इस तरह कश्मीर को लाने के निहितार्थ क्या हैं, इस मुद्दे पर भी क्या गहरे विचार की जरूरत नहीं?

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